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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ३९
यह गण भी मूलसंघ में आत्मसात् हो गया होगा। किन्तु इसके बाद १३वीं शताब्दी तक इस गण के अभिलेखों में यापनीय संघ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। अतः यह निश्चय करना कठिन होता है कि यह गण, जो यापनीय संघ का एक गण था, पूर्णतः मूलसंघ के द्वारा आत्मसात् कर लिया गया था। यह हो सकता है कि इस गण के कुछ आचार्य मूलसंघ में चले गये हों। किन्तु यह भी सत्य है कि यापनोय संघ धीरे-धीरे समाप्त हो रहा था और उसके गण और आचार्य द्रविड़संघ और मूलसंघ से जुड़ते जा रहे थे।
कुमुदिगण/कुमुलिगण ___ दक्षिण कर्नाटक और तमिल प्रदेश में यापनीय सम्प्रदाय के जिन गणों का उल्लेख मिलता है, उनमें कुमुदिगण एक प्रमुख गण है। यद्यपि इस गण के कुछ अभिलेख उत्तरी कर्नाटक में भी मिले हैं। इस गण का सबसे प्राचीन अभिलेख कीरप्पाकम्-तमिलनाडु से नवीं शताब्दी का प्राप्त हुआ है। इसमें अमरमुदलगुरु द्वारा देशवल्लभ नामक जिनालय के निर्माण का उल्लेख है। इसमें यापनीय संघ का भी स्पष्ट निर्देश है।' इसी प्रकार मुगद, जिला मैसूर से ई० सन् १०४५ का एक अभिलेख उपलब्ध है जिसमें कुमुदिगण के कुछ आचार्यों का उल्लेख हुआ है, यथा-सिरिकीर्ति गोरवड़ि, प्रभाशशांक, नयवृत्तिनाथ, एकवीर, महावीर, नरेन्द्रकीर्ति, नागविक्कि, वृतीन्द्र, निरवद्यकीर्ति भट्टारक, माधवेन्दु, बालचन्द्र, रामचन्द्र, मुनिचन्द्र, रविकीर्ति, कुमारकीर्ति, कुमारचन्द्र, दामनन्दि, त्रैविद्यगोवर्द्धन, दामनन्दि, वड्ढाचार्य आदि ।२ प्रो० उपाध्ये ने यह सूची प्रामाणिक नहीं मानी है। इसी प्रकार गदग (धारवाड़) के एक अभिलेख में भी कुमुदिगण के शान्तिदेव के समाधिमरण का उल्लेख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुमुदिगण नवों शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक अर्थात् लगभग ३०० वर्ष तक अस्तित्व में रहा। कोरयगण
कोरयगण के उल्लेख पर्याप्त रूप से परवर्ती हैं। यद्यपि इस गण का
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ४, ले० क्र० ७० २. वही, भाग ४, ले० क्र० १४३ ३. वही, भाग ४, ले० क्र० ६११, ६१२
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