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२१८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
चाहिए कि धर्मलाभ कहने की परम्परा न केवल श्वेताम्बर है, अपितु यापनीय भी है । यापनीय मुनि भी श्वेताम्बर मुनियों के समान धर्मलाभ ही कहते थे ।
ग्रन्थ के श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के इन अन्तःसाक्ष्यों के परीक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ग्रन्थ के अन्तः साक्ष्य मुख्य रूप से उसके श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के पक्ष में अधिक हैं। विशेष रूप से स्त्री मुक्ति का उल्लेख यह सिद्ध कर देता है कि यह ग्रन्थ स्त्रो मुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध नहीं हो सकता है।
१४ – विमलसूरि ने पउमचरियं के अन्त में अपने को नाइल (नागेन्द्र ) वंशनन्दीकर आचार्य राहू का प्रशिष्य और आचार्य विजय का शिष्य बनाया है । साथ ही पउमचरियं का रचनाकाल वी० नि० सं० ५३० कहा है । 3 ये दोनों तथ्य भी विमलसूरि एवं उनके ग्रन्थ के सम्प्रदाय-निर्धारण हेतु महत्त्वपूर्ण आधार माने जा सकते हैं । यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में नागेन्द्रकुल का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है, जबकि श्वेताम्बर मान्य कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्यवज्र के प्रशिष्य एवं व्रजसेन के शिष्य आर्य नाग से नाइल या नागिल शाखा के निकलने का उल्लेख है | श्वेताम्बर पट्टावलियों के अनुसार भी व्रजसेन के शिष्य आर्य नाग ने नाइल शाखा प्रारम्भ की थी । विमलसूरि इसी नागिल शाखा में हुए हैं । नन्दी सूत्र में आचार्य भूतदिन्न को भी नाइलकुलवंशनंदीकर कहा गया है ।" यही विरुद विमलसूरि ने अपने गुरुओं आयं राहू एवं आर्य विजय को भी दिया है । अतः यह सुनिश्चित है कि विमलसूरि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा से सम्बन्धित हैं और उनका यह ' नाइल कुल' श्वेताम्बरों में बारहवीं शताब्दी तक चलता रहा है। चाहे उन्हें आज के अर्थ में श्वेताम्बर न कहा जाये, किन्तु वे श्वेताम्बरों के अग्रज अवश्य है, इसमें किसी प्रकार के मतभेद की सम्भावना नहीं है ।
१. गोप्या यापनीया । गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति । - षट्दर्शनसमुच्चय टीका ४ / १ ।
२. पउमचरियं, ११८/११७; ।
३. वही, ११८ / १०३ ।
४. 'थेरेहितो णं अज्जवइरसे णिएहितो एत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया'कल्पसूत्र २२१, पृ० ३०६ ।
नाइलकुल - वंसनं दिक रे" भूय दिन्नमायरिए । - नन्दीसूत्र ४४-४५ ।
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