Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 490
________________ ४७४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय जिनकल्प और स्थविरकल्प यापनीय परम्परा में जिनकल्प का उल्लेख हमें भगवती आराधना और उसकी विजयोदया टीका में मिलता है । उसमें कहा गया है कि 'जो राग-द्वेष और मोह को जीत चुके हैं, उपसर्ग को सहन करने में समर्थ हैं, जिन के समान एकाको विहार करते हैं, वे जिनकल्पी कहलाते हैं । क्षेत्र आदि की अपेक्षा से विवेचन करते हुए आगे उसमें कहा गया है कि जिनकल्पी सभी कर्म भूमियों और सभी कालों में होते हैं । इसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से वे सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले होते हैं। वे सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पाये जाते हैं और जन्म की अपेक्षा से ३० वर्ष की वय और मुनि जीवन की अपेक्षा से १९ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले होते हैं । ज्ञान की दृष्टि से नव-दस पूर्व के ज्ञान के धारी होते हैं । वे तीनों शुभ लेश्याओं से युक्त होते हैं और वज्र - ऋषभ नाराच संहनन के धारक होते हैं । " 1 अपराजित के अतिरिक्त जिनकल्प और स्थविरकल्प का उल्लेख यापनीय आचार्य शाकटायन के स्त्री-मुक्ति प्रकरण में भी है । इससे यह प्रतीत होता है कि जिनकल्प की अवधारणा श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों परम्पराओं में लगभग समान ही थी । मुख्य अन्तर यह है कि यापनीय परम्परा में जिनकल्पी के द्वारा वस्त्र ग्रहण का कोई उल्लेख नहीं है । क्योंकि उसमें मुनि के लिए वस्त्र पात्र की स्वीकृति केवल अपवाद मार्ग में है, उत्सर्ग मार्ग में नहीं और जिनकल्पी उत्सर्गं मार्ग का अनुसरण करता है । अतः यापनीय परम्परा के अनुसार वह किसी भी स्थिति में वस्त्र- पात्र नहीं रख सकता । वह अचेल ही रहता है और पाणि-पात्री होता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों के अनुसार जिनकल्पी अचेल भी होता है और सचेल भी । वे पाणि-पात्री भी होते हैं और सपात्र भी होते हैं । ओघनियुक्ति ( गाथा ७८-७९ ) में उपधि के आधार पर जिनकल्प के भी अनेक भेद किये गये हैं । T इसी प्रकार निशीथभाष्य में भी जिनकल्पी की उपधि को लेकर १. भगवती आराधना, भाग -१ ( विजयोदया टीका ) - गाथा - १५७ की टीका पृ० सं० २०५ २. (अ) शाकटायन व्याकरणम् ( स्त्री मुक्ति प्रकरणम् ) - ७ सं० पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, १९७१ पृ० १ (ब) बृहत्कल्पसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, ब्यावर, १९९२ –६/९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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