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निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा ४८१
चार में मुनि के उपकरणों की चर्चा के प्रसंग में प्रतिलेखन और उसके गुणों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है । प्रतिलेखन में पाँच गुण होने चाहिएधूलि (रज ) एवं स्वेद को ग्रहण नहीं करना, मृदुता - अर्थात् आँख में घुमाने पर भी पीड़ा न हो, सुकोमलता और हल्कापन । विशेषावश्यक में जो पिच्छी की चर्चा नहीं की गई है उसका एकमात्र कारण उसका उभय-सम्मत संयमोपकरण होना ही है ।
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यापनीय या बोटिकों के उपधि सम्बन्धी विवरण में आचारांग चूर्णि में 'धम्मकुच्चग' का उल्लेख उपलब्ध है ।" यहाँ 'धर्मकूर्चक' पिच्छी या प्रतिलेखन का सूचक है । शीलाङ्क ने अपनी आचारांग को टीका में र बोटिकों के उपकरणों की चर्चा के प्रसंग में 'अश्वबालधिबालादि' का उल्लेख किया है । इसमें अश्वबाल पिच्छी या प्रतिलेखन का पर्यायवाची रहा है। इस प्रसंग में कुच्चग ( कूर्चक ) और अश्वबाल पर कुछ अधिक चर्चा अपेक्षित है | अभिलेखीय सूचनाओं से विक्रम की पाँचवीं शताब्दी में निर्ग्रन्थ संघ, मूलसंघ, कूर्चक, यापनीय और श्वेतपट - ऐसे पाँच जैन सम्प्रदायों के उल्लेख मिलते हैं । इनमें निर्ग्रन्थ ( दिगम्बर ) श्वेतपट ( श्वेताम्बर ) और यापनीय ये तीन स्पष्ट हैं । किन्तु कूर्चक कौन ये यह विचारणीय है । पं० नाथूरामजी प्रेमी और डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने इन्हें दाढ़ी-मूंछ रखने वाले जैन मुनि माना है । * किन्तु मेरो दृष्टि में दाढ़ी-मूंछ के कारण नहीं अपितु कुच्चग (कूर्चक) रखने के कारण ही वे कूचक कहलाते होंगे । आचारांगचूर्णि में धम्मकुच्चग शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि यह धार्मिक उपकरण था । दाढ़ी-मू छ धार्मिक उपकरण नहीं हो सकते हैं, अतः कूर्चक वे हैं जो प्रतिलेखन के हेतु कूर्चंक (कुच्चग) रखते थे । पं० नाथूराम जी प्रेमी और प्रो० उपाध्ये ने उन्हें जो दाढ़ी-मूंछ रखने वाले जैन मुनि माना है- यह मेरो दृष्टि में भ्रान्त है । शायद उन्हें भी आचारांगचूर्णि का यह उल्लेख ज्ञात होता तो वे ऐसा निष्कर्ष निकालने की भूल नहीं करते | यह स्पष्ट है कि
१. आचारांग चूर्णि - पृ० ८२
२. आचारांग ( शीलांक टीका ) आगमोदय समिति, पृ० १३५
३. जैन शिलालेख संग्रह भाग - २, अभिलेख क्रमांक, ९९, १०२, १०३ ४. जैन इतिहास और साहित्य, पं० नाथूरामप्रेमी, द्वितीय संस्करण,
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पृ० ५५८-५६२
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