Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 510
________________ ४९४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय में भी प्रथम महाव्रत की भावनाओं में वचनगुप्ति का उल्लेख न होकर आलोकित पान भोजन का ही उल्लेख हुआ है । ― जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं कि सर्वप्रथम दशवेकालिक के चतुर्थ अध्याय में 'अहावरे छट्ठे भन्ते वये रायभोअण विरमणं" कहकर रात्रि - भोजन निषेध को छठा व्रत कहा गया है । दशवेकालिक की चूर्णि में कहा गया है कि जिन-प्रवचन में पाँच महाव्रत ही प्रसिद्ध हैं तो फिर महाव्रतों की चर्चा के प्रसंग में रात्रि भोजन का वर्णन क्यों किया जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि 'प्रथम और अन्तिम जिनवरों के काल में पुरुषों का स्वभाव क्रमशः ऋजुजड़ और वक्रजड़ होने के कारण पाँच महाव्रतों के बाद छठे व्रत के रूप में रात्रि भोजननिषेध का अलग से विवेचन किया जाता है और उसे महाव्रत के समान हो माना जाता है । जबकि मध्यकाल के तीर्थंकरों के काल में इसे उत्तर गुणों में समाविष्ट किया जाता है । यहाँ - 'महव्वयमिव मन्नतां यह कथन विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । इसी की पुष्टि अपराजितसूरि ने भगवती आराधना की विजयोदया टीका में की है । वे कहते हैं कि'प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के काल में पाँच महाव्रत और छठा रात्रिभोजन विरमणव्रत होता है । पंच महाव्रतों के पालन के लिए ही रात्रि भोजन विरमणव्रत का विधान किया जाता है । यह दृष्टिकोण भगवती आराधना की गाथा ११७९ और १९८० में तथा मूलाचार की गाथा २९५ और २९६ में समानरूप से उपलब्ध है । दोनों की गाथाएँ शब्दशः समान हैं । इससे स्पष्ट है कि इस सम्बन्ध में भगवती आराधना और मूलाचार का दृष्टिकोण वही है जो कि दशवेकालिकसूत्र और उसके चूर्णिकार का है। रात्रि भोजन त्याग के अभाव में पाँचों महाव्रतों का किस प्रकार खण्डन होता है - इस सम्बन्ध में भगवती आराधना और श्वेताम्बर आगमों के टीकाकारों का दृष्टिकोण समान ही है । भगवती आराधना और उसकी विजयोदया टीका में कहा गया है'यदि मुनि रात्रि में भिक्षा के लिए भ्रमण करता है तो अस और स्थावर जीवों का घात करता है, क्योंकि रात्रि में उनको देख सकना कठिन है । १. दशवकालिक अध्याय, ४/६ २. दशकालिक अगस्यसिंहचूर्णि ( प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी ) पृ० ८६ ३. भगवती आराधना भाग १ ( पं० कैलाशचंद्र ) गाथा ४२३ की टीका पू० ३३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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