________________
निर्ग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४९५ रात्रि में देनेवाले के आने का मार्ग, उसके अन्न रखने का स्थान, अपने उच्छिष्ट भोजन के गिरने का स्थान, दिया जानेवाला आहार योग्य है अथवा नहीं-यह सब भिक्षु कैसे देख सकता है ? दिन में भी जिनका परिहार कठिन है उन रसज अतिसूक्ष्म जीवों का परिहार रात्रि में कैसे कर सकता है ? करछल, अथवा देने वाले का हाथ अथवा पात्र को देखे बिना कैसे आहार शोधन कर सकता है ? इन सबकी सम्यक् रूप से परीक्षा किये बिना पद विभागी एषणा समिति की आलोचना न करने पर साधु का व्रत कैसे रह सकता है ? दान का स्वामो सोया हुआ हो और उसके द्वारा न दिये गये आहार को किसी अन्य के हाथ से लेने पर अदत्तादान (बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण) कहलायेगा। किसी भाजन में दिन में लाकर रखे और रात्रि में भोजन करे तो अपरिग्रह का लोप होगा, किन्तु रात्रि-भोजन का त्याग करने से सब व्रत सम्पूर्ण रहते हैं। __दशवकालिक में रात्रि-भोजन निषेध को चर्चा करते हुए कहा गया है कि "सभी बुद्धों (तीयंकरों) ने एक समय भोजन को लज्जायुक्त वृत्ति और नित्य तप कर्म कहा है। जो त्रस और स्थावर अतिसूक्ष्म प्राणी हैं उन्हें रात्रि में नहीं देख पाने के कारण मुनि आहार गवेषणा कैसे कर सकता है ? उदक से आर्द्र बीजों से संसक्त आहार से या पृथ्वी पर रहे हुए सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा से दिन में ही बचा जा सकता है, रात्रि में नहीं। अतः रात्रि में भिक्षाचर्या कैसे की जा सकती है ? इन्हीं दोषों को देखकर ज्ञातपुत्र महावीर ने यह कहा है कि निर्ग्रन्थ सब प्रकार का आहार रात्रि में नहीं करता है। रात्रि में भोजन से न केवल प्राणियों को हिंसा होती है अपितु उससे अन्य व्रत भी भंग होते हैं। यथा-यदि रात्रि में भिक्षाटन करने जायेगा तो अन्धकार हो जाने से निर्लज्जता भी बढ़ सकती है, फलतः मैथुनादि दाषों का प्रसंग भी उपस्थित होना सम्भव है। कभी-कभी स्वार्थसिद्धि के लिए असत्य का प्रयोग भी कर सकता है । अदत्तादान और परिग्रह का भाव भो रात्रि में गृहस्थों के घरों में जाने से हो सकता है, अतः रात्रि में आहार-विहार से संयम विराधना के अन्तर्गत ये सब दोष उत्पन्न हो सकते हैं। - तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि रात्रि-भोजन से सभी महाव्रत भंग होते हैं, इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर और यापनीयों १. भगवती आराधना-गाथा ११७९-११८० की टीका । २. दशवकालिक, ६/२३-२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org