Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 515
________________ निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४९९ गणित किया गया होगा किन्तु मेरी दृष्टि में उनकी यह धारणा समुचित नहीं है क्योंकि रात्रिभोजन-त्याग को विशेष महत्व देने और उसे छठे व्रत के रूप में परिगणित करने की परम्परा अतिप्राचीन है। सूत्रकृतांग की वीर स्तुति में तथा दशवैकालिक में इस सम्बन्ध मे उल्लेख उपलब्ध होने से इसे भद्रबाहुकालीन नहीं माना जा सकता क्योंकि ये दोनों ही ग्रन्थ भद्रबाहु प्रथम के पूर्व के हैं और हरिषेण के बृहद्कथाकोश की अपेक्षा तो १००० वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं। वस्तुतः रात्रिभोजन विरमण को महत्त्व देने एवं स्वतन्त्र व्रत के रूप में मान्य करने की परम्परा स्वयं महावीर की ही देन है। क्योंकि पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म में महावीर ने ब्रह्मचर्य और रात्रिभोजन निषेध को स्वतंत्र व्रत के रूप में जोड़ा था। इस समस्त चर्चा का निष्कर्ष यही है कि रात्रि-भोजन निषेध को षष्ठव्रत के रूप में स्वीकार करने की परम्परा श्वेताम्बर और यापनीय ही है। दिगम्बर परम्परा उसे षष्ठव्रत के रूप में स्वीकार न करके उसका अन्तर्भाव आलोकित भोजनपान नामक प्रथम व्रत की भावना में करती है। इस प्रकार ये कुछ प्रमुख विचारणीय प्रश्न हैं जिनके सम्बन्ध में यापनीय परम्परा का दृष्टिकोण श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्पराओं से भिन्न रहा है, इनकी हमने यहाँ चर्चा को है। शेष दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी प्रश्नों पर यापनीयों का दृष्टिकोण अन्य दोनों सम्प्रदायों के समान ही है अतः उनको चर्चा करना यहाँ अपेक्षित नहीं है । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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