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निर्ग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४९३ में किया गया है । ज्ञातव्य है कि सर्वप्रथम दशवकालिकसूत्र में ही रात्रि भोजन निषेध को स्पष्टतः छठा व्रत कहा गया है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह परम्परा अति प्राचीन है। हम पूर्व में ही यह बता चुके है कि पार्श्वनाथ की परम्परा में महावीर द्वारा किये गये आचार संबंधी प्रमुख संशोधनों में एक संशोधन रात्रि-भोजन निषेध का स्पष्ट विधान करना भी था । श्वेताम्बर आचार्य जिनदास गणि की दशवैकालिक चणि और यापनीय आचार्य अपराजितसरि की भगवती आराधना की विजयोदया टीका में स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया गया है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों क तीर्थ में रात्रि-भोजन-विरमण को छठा व्रत माना जाता है और पाँच महाव्रतों के पालनार्थ ही रात्रिभोजन-विरमण नामक छठे व्रत का विधान किया जाता है। ज्ञातव्य है कि जहाँ दिगम्बर परम्परा रात्रि-भोजन निषेध को अहिंसा महाव्रत की भावनाओं में समाहितकर मात्र उसे अहिंसा महाव्रत के रक्षण के लिए ही आवश्यक मानती है वहाँ श्वेताम्बर और यापनीय परम्परायें पाँचों महाव्रतों के रक्षणार्थ रात्रि-भोजन का निषेध करती है। जहाँ दिगम्बर परम्परा उसे प्रथम महाव्रत के आलोकित भोजन पान में अन्तभुक्त मानती है, वहाँ श्वेताम्बर और यापनीय परम्परायें उसे एक स्वतन्त्र व्रत भी मानती हैं। ___ इस संदर्भ में श्वेताम्बर यापनीय काष्ठासंघीय और दिगम्बर परम्पराओं में जो-जो सूक्ष्म अन्तर हैं उन्हें भी हमें समझ लेना चाहिए। जहाँ श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा उसे छठा व्रत कहती है, वहाँ काष्ठासंघोय उसे छठा अणुव्रत कहते हैं किन्तु दिगम्बर परम्परा उसे न तो व्रत कहती है और न अणव्रत, अपितु उसका अन्तर्भाव प्रथम महाव्रत की आलोकित भोजन-पान नामक भावना में करती है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में तथा समवायांग, मूलाचार और तत्त्वार्थ भाष्य में प्रथम महाव्रत की भावनाओं में आलोकित भोजन-पान का उल्लेख है', किन्तु प्रश्नव्याकरण में इसका उल्लेख नहीं है । मूलाचार
१. (अ) आचारांग, २०१५
(ब) समवायांग २५वां समवाय (स) मूलाचार, ५।१४० (द) तत्त्वार्थभाष्य, ७३
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