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४९२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय आचार्यों ने अपनी अपनो तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में स्पष्टतया इस बात का निषेध किया है कि रात्रि-भोजन-विरमण छठा व्रत है।' इससे यह भी फलित होता है कि इन आचार्यों के समक्ष एक ऐसी परम्परा थी जो रात्रि-भोजन निषेध को स्वतन्त्र व्रत या अनुव्रत मानती थी, जिसका उन्हे अपनी कृतियों में खण्डन करना पड़ा। स्पष्ट है कि उस समय श्वेताम्बर परम्परा ओर यापनीय परम्परा उसे छठा व्रत मानती थी। __इसी संदर्भ में यदि हम यापनीय ग्रन्थों को देखते हैं तो मलाचार और भगवती आराधना में रात्रि-भोजन का स्वतन्त्र व्रत के रूप में उल्लेख नहीं है परन्तु मूलाचार में इन व्रतों की रक्षा के लिए 'रात्रिभोजननिवृत्ति' का विधान किया गया है। फिर भी पाँच महाव्रतों को चर्चा के साथ इसका उल्लेख होने से यह आगमिक मान्यता के निकट हो है । मात्र यही नहीं भगवती आराधना की टीका, प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी, छेदपिण्ड शास्त्र आदि यापनीय ग्रन्थों में रात्रि भोजन निषेध को स्पष्टतः छठा व्रत कहा गया जबकि दिगम्बर परम्परा में रात्रि-भोजन निषेध को न तो स्वतन्त्र व्रत ही कहा गया है और न उसकी गणना मूलगुणों में ही हुई है अपितु उसे एकभक्त के अन्तर्गत अथवा आलोकित पान भोजन के अन्तर्गत ही समाविष्ट मान लिया गया है। जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है, उसमें आचारांग और तत्त्वार्थभाष्य को छोड़कर दशवकालिक आदि अन्य ग्रंथों में रात्रि-भोजन निषेध को प्रायः छठा व्रत कहा गया है। __इस प्रकार जहाँ श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय ने रात्रि भोजन निषेध को छठा व्रत कहा, वहाँ यापनीय सम्प्रदाय से विकसित क ष्ठासंघ में रात्रि-भोजन निषेध को छठा अणुव्रत स्वीकार किया गया किन्तु दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में उसे स्वतन्त्र व्रत न मानकर उसका समावेश प्रथम महाव्रत की आलोकित भोजन-पान नामक भावना
१. (अ) ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोप संख्यातव्यम् । नभावनास्वन्तर्भावात् ।
-सर्वार्थसिद्धि ७।१ (ब) तत्त्वार्थवार्तिक-अकलंक, ७/१ की टीका
(स) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-विद्यानन्द ७१ की टीका २. तेसिं चेव वदाणं रक्ख ठें रादिभोयण नियती ।
-मूलाचार ( माणिकचन्द्र ) ग्रन्थमाला ५।९८
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