Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 507
________________ निग्रंन्य संघ में उपकरणों को विकास यात्रा : ४९१ जिस रात्रि-भोजन का निषेध है उसका भी व्रत, अणुव्रत के रूप में उल्लेख यापनीय परम्परा में मिलता है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगेरात्रि-भोजन-निषेष-छठावत ___दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में जैनाचार की अपेक्षा से विवाद का मुख्य विषय तो वस्त्र-पात्र के ग्रहण को लेकर ही रहा जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं, साथ ही यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि इस संबंध में इन तीनों परम्पराओं की भूलभूत मान्यताओं में क्या अन्तर था? जहाँ तक पंचमहाव्रतों और रात्रि-भोजन-निषेध नामक छठे व्रत का प्रश्न है पंच महाव्रतों का सामान्य विवरण सभी परम्पराओं में समान है, उनके नाम एवं क्रम भी वही हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचारांग में इन पाँच महाव्रतों और उनकी पाँच-पाँच भावनाओं का उल्लेख मिलता है । भावनाओं का यह उल्लेख उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अंतिम अध्याय में है। उसमें रात्रि-भोजन निषेध का स्वतन्त्र उल्लेख व्रत के रूप में नहीं है किन्तु सूत्रकृताङ्ग में उपलब्ध वीरस्तुति से यह ज्ञात होता है कि महावीर ने जिस प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य पर बल देकर उसे स्वतन्त्र स्थान दिया था उसी प्रकार उन्होंने रात्रि-भोजन निषेध पर भी विशेष बल देकर उसको भी स्वतन्त्र स्थान दिया होगा।' यही कारण है कि दशकालिक आदि आगमों में रात्रि-भोजन निषेध को एक स्वतन्त्र व्रत के रूप में ही गिनाया गया है । इस सम्बन्ध में जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसके ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण करते हुए पाँच महाव्रतों का ही विवेचन उपलब्ध होता है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में प्रथम महाव्रत की आलोकित पान भोजन नामक भावना के रूप में रात्रि-भोजन निषेध का उल्लेख है परन्तु तत्वार्थसूत्र की दिगम्बर टीकाओं और अन्य दिगम्बर ग्रन्थों में उसकी गणना स्वतन्त्र व्रत के रूप में नहीं की गई है। यहाँ तक कि अनेक सन्दर्भो में आगमिक परम्परा का अनुसरण करने वाले कुन्दकुन्द ने भी रात्रि-भोजन-निषेध का छठे व्रत के रूप में कहीं उल्लेख नहीं किया है । श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य में दशवेकालिक आदि से प्रारम्भ करके परवर्ती अनेक ग्रन्थों में रात्रिभोजन-निषेध का स्वतन्त्र व्रत के रूप में उल्लेख हुआ है और उसे छठा व्रत कहा गया है । जबकि पूज्यपाद अकलंक, विद्यानन्द आदि दिगम्बर १. से वारिया इत्थि सराइ मत्तं ।-सूत्रकृतांग १।६।२८ २. अहावरे छठे भंते वए राईभोयणाओ वेरमणं सन्वं"। दशवकालिक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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