Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 505
________________ निर्ग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४८९ भावना-विचारपूर्वक साधर्मियों से सीमित स्थान की याचना करना है । आचारांगणि और आवश्यकचणि में इसका इसी रू। में उल्लेख है। __इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में भी आचारांग से प्रारम्भ करके समवायांग के काल तक इन भावनाओं में परिवर्तन हुआ है और इनके क्रम और अर्थ में भी अन्तर आया है । आचारांग का अनुज्ञापित पान-भोजन आगे चलकर गुरु की आज्ञापूर्वक पान-भोजन बन गया । जब उपाश्रयों में भोजन करने की परम्परा शुरू हुई होगी तभी इसके अर्थ में परिवर्तन आया होगा। श्वेताम्बर परम्परा में प्रश्नव्याकरण के काल में आकर तो तृतीय महाव्रत की पाँचों भावनाओं के स्वरूप में परिवर्तन आ गया । उसमें निर्दोष उपाश्रय, निर्दोष संस्तारक, शय्या परिकर्मवर्जन, अनुज्ञात पान-भोजन और साधर्म विनय इन पाँच भावनाओं का उल्लेख मिलता है।' यहाँ याचना शब्द के स्थान पर निर्दोषता शब्द पर अधिक बल दिया गया। निर्दोष संस्तारक और शय्या परिकर्मवर्जन में ये-दो नई भावनाएँ जुड़ीं। अन्य तीन भावनाओं के अर्थ में भी अन्तर आया। तत्त्वार्थसूत्र ( सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ) में इनके स्थान पर शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भिक्षाशुद्धि और सधर्म अविसंवाद दिये गए हैं। ज्ञातव्य है कि जहाँ तत्त्वार्थभाष्य में क्रम-भेद को छोड़कर इस महाव्रत की पाँचों वही भावनाएँ हैं जिनका उल्लेख श्वेताम्बर आगमों में पाया जाता है वहीं इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थ के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाट में इन्हें भिन्न रूप में प्रस्तुत किया गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने चरित्तपाहुड में इन्हीं का अनुसरण किया है । श्वेताम्बर परम्परा में भी प्रश्नव्याकरण के उपलब्ध परवर्ती संस्करण में इन्हें किंचित परिवर्तन के साथ प्रस्तुत किया गया-जैसे शून्यागारवास के स्थान पर निर्दोष उपाश्रय तथा परोपरोधाकरण के स्थान पर शय्यापरिकर्मवर्जन है। यहाँ निर्दोष संस्तारक और शय्यापरिकर्मवर्जन बिलकुल अलग है । भिक्षाशुद्धि और सधर्मअविसंवाद के स्थान पर अनुज्ञात भक्तपान आदि है। इस प्रकार हम देखते हैं कि तीसरे व्रत की भावनाओं के सन्दर्भ में एक ही सम्प्रदाय में भी भिन्नभिन्न परम्पराएँ पायी जाती हैं। यदि इसी सन्दर्भ में यापनीय दृष्टिकोण परविचार किया जाय तो ऐसा लगता है कि यापनीय दृष्टिकोण किंचित रूप से आगम का अनुसरण करता है और किंचित् रूप में भिन्न भी है। उसके अनुसार याचनापूर्वक स्थान आदि का ग्रहण समनोज्ञ व्यक्तियों १. प्रश्न व्याकरण-तृतीय संवर द्वार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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