Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 496
________________ ४८० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय चलकर माथुर संघ कहलायो निष्पिच्छिक रही हो । निष्पिच्छिक संघ को माथुर संघ भी कहा जाता है और इसको उत्पत्ति रामसेन द्वारा विक्रम सं० ९५३ में बतायी गयी है।' स्मरण रहे कि बोटिक (यापनीय) और माथुर संघ ( निष्पिच्छिक संघ ) दोनों ही मथुरा क्षेत्र से सम्बन्धित हैं तथा दोनों को हो जैनाभास बताया गया है। पुनः यापनीयों का एक नाम गोप्य संघ भी है। मथुरा, आगरा, ग्वालियर, झाँसी आदि के आसपास का प्रदेश, प्राचीन काल में गोपाञ्चल कहा जाता था, उसी क्षेत्र से सम्बन्धित होने के कारण यापनीय गोप्य कहलाये । अतः माथुर संघ और गोप्य संघ (यापनीय संघ ) क्षेत्र की दृष्टि से परस्पर सम्बन्धित प्रतीत होते हैं, किन्तु कालिक दृष्टि से दोनों में पर्याप्त अन्तर है। यद्यपि यह सत्य है कि माथुर संघ का विकास परम्परा की दृष्टि से यापनीयों से हुआ है जिसकी चर्चा 'माथुर संघ और यापनीय' नामक शीर्षक के अन्तर्गत द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है । किन्तु इस आधार पर यह कहना युक्तिसंगत नहीं होगा कि यापनीय भी माथुर संघ के समान निष्पिच्छिक थे । क्योंकि मूलाचार और भगवती आराधना में जो यापनीय संघ के ग्रंथ हैं, में प्रतिलेखन का स्पष्ट उल्लेख है। मात्र यही नहीं इन दोनों ग्रंथों में प्रतिलेखन के गुण भी बताये गये हैं। यद्यपि बोटिकों या यापनीयों ने अलग होते समय प्रारम्भ में पिच्छी ग्रहण की थी या नहीं इसके प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में निर्णयात्मक कथन करना कठिन है, किन्तु कालान्तर में वे प्रतिलेखन अवश्य रखते थे इसमें संक्षय नहीं किया जा सकता। क्योंकि पूर्वोक्त यापनीय परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा के बोटिकों की चर्चा करने वाले ग्रन्थों में भी बोटिक मुनियों की सामग्री ( उपधि ) के प्रसंग में प्रतिलेखन या पिच्छी को चर्चा मिलती है। मेरी दृष्टि में तो यापनीय प्रारम्भ से ही प्रतिलेखन ( पिच्छो ) रखते थे क्योंकि विशेषावश्यकभाष्य के पूर्ववर्ती या कम से कम समकालिक यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना और मूला (ब) माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिका नाद्रता इन्द्रनन्दी । -षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्न टीका, पृ० १६१ १. देखें-इसी पुस्तक का अध्याय-२ पृ० ६० २. रजसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमाहदा लहुत्तं च । जत्थेदे पंचगुणा तं पडिविहण पसंसंति ।। -मलाचार-१०।१९, भगवती बारापना-९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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