Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 491
________________ निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास योत्रा : ४७५ विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि पात्र की अपेक्षा से जिनकल्पी दो प्रकार के होते हैं-पाणिपात्र अर्थात् बिना पात्र वाले और पात्रधारी । इसी प्रकार वस्त्र की अपेक्षा से भी उसमें जिनकल्पियों के दो प्रकार बताए गये हैं-अचेलक और सचेलक। पुनः इनकी उपधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो अचेलक और पाणिपात्रभोजी जिनकल्पी होते हैं वे रजोहरण और मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण रखते हैं। जो सपात्र और सवस्त्र होते हैं उनकी उपधि की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक बारह होती है। स्थविरकल्पो को जिन १४ उपधियों का उल्लेख किया गया है उनमें मात्रक और चूलपटक ये दो उपधि जिनकल्पी नहीं रखते हैं। यापनीयों की दूसरी विशेषता यह है कि वे श्वेताम्बरों के समान जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानते। उनके अनुसार समर्थ साधक सभी कालों में जिनकल्प को धारण कर सकते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार जिनकल्पी केवल तीर्थंकर की उपस्थिति में ही होता है। यद्यपि यापनीयों की इस मान्यता में उनकी हो व्याख्यानुसार एक अन्तर्विरोध आता है, क्योंकि उन्होंने अपनी जिनकल्पी की व्याख्या में यह माना है कि जिनकल्पी नव-दस पूर्वधारी और प्रथम संहनन के धारक होते हैं। चूँकि उनके अनुसार भी वर्तमान में पूर्व ज्ञान और प्रथम संहनन ( वजऋषभ-नाराच-संहनन) का अभाव है। अतः जिनकल्प सर्वकालों में कैसे संभव होगा। इन दो-तीन बातों को छोड़कर यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में जिनकल्प के सम्बन्ध में विशेष अन्तर नहीं है। विशेष जानकारी के लिए भगवती आराधना की टीका और बृहत्कल्पभाष्य के तत्सम्बन्धी विवरणों को देखा जा सकता है। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर ग्रथ गोम्मटसार और यापनीय ग्रंथ भगवती आराधना की टीका में जिनकल्प को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अन्तर परिलक्षित होता है, वह यह कि जहाँ गोम्मटसार में जिनकल्पी मुनि को मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, वहाँ भगवती आराधना में उनमें सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्र माने गये हैं । वस्तुतः यह अन्तर इसलिए आया कि जब दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीय चारित्र का अर्थ महावतारोपण से भिन्न होकर प्रायश्चित्त रूप पूर्व दीक्षा पर्याय के छेद के अर्थ में लिया गया तो, जिनकल्पी में प्रायश्चित्त रूप छेदो१. (अ) बृहत्कल्पसूत्र ६।२० (ब) पंचकल्पभाष्य ( आगमसुधासिन्धु) ८१६-८२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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