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४७२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
हुआ होगा, यही माना जा सकता है । मेरी दृष्टि में नियुक्तियों का रचनाकाल ईसा की लगभग दूसरी शती माना जा सकता है ।
ईसा की प्रथम - दूसरी शती में निर्ग्रन्थ परम्परा के मुनियों में वस्त्रादि उपकरणों की स्थिति क्या थी, इसका पुरातात्त्विक प्रमाण हमें इसी काल के मथुरा के अंकनों से मिलता है । उसमें चतुर्विध संघ के अंकनों में मुनियों एवं साध्वियों के विविध अंकन हैं। उनमें निम्न उपकरणों का स्पष्ट अंकन है - १. कम्बल, २. मुखवस्त्रिका, ३ पात्र प्रोञ्छन । प्रतिलेखन / रजोहरण, ४. पात्र और ५. पात्र रखने की झोली अर्थात् पात्रबंध । मुनियों के जो अंकन हैं उनमें उनके हाथ में मुखवस्त्रिका / वस्त्रखण्ड तथा कलाई पर तह किया हुआ कम्बल प्रदर्शित है जिससे किन्हीं अंकनों में उनकी नग्नता छिप गई है और किन्हीं में वह नहीं भी छिपी है (देखें चित्र संख्या । किन्तु कोई भी मुनि वस्त्र धारण किये हुए प्रदर्शित नहीं हैं । अभिलेखों में इन मुनियों के नाम, गण, शाखा और कुल आदि का जो उल्लेख है उनकी पुष्टि कल्पसूत्र पट्टावली से होती है । अतः स्पष्ट है कि ये अंकन उत्तर भारत में सचेल और अचेल परम्परा के विभाजन के पूर्व की स्थिति के सूचक हैं । उपरोक्त चौदह उपकरणों में से पाँच का स्पष्ट अंकन है- शेष पात्र स्थापन, पात्रपटल, रजस्त्राण और गुच्छक / पात्र केसरिका - ये चार पात्र से ही सम्बन्धित और अत्यन्त छोटे-छोटे वस्त्र खण्ड ही होते हैं । इनका स्वतन्त्र अंकन या प्रदर्शन आवश्यक नहीं था। इनका विकास पात्र रखने की परम्परा के साथ ही हुआ होगा क्योंकि इनका मुख्य उद्देश्य पात्र में कोई जीव-जन्तु या रज-धूलि आदि को गिरने से रोकना, पात्र की सफाई तथा पानी को छानना आदि था । मात्रक मल-मूत्र विसर्जन हेतु रखा जाता है और इसे रखने की अनुमति आर्यरक्षित ने प्रथम दूसरी शती में ही दी थी । इस प्रकार ये कुल दस उपकरण हुए। शेष चार-तीन प्रच्छादक (चादर) और एक चूलपट्टक इन चार का अंकन मथुरा के स्थापत्य में पहली दूसरी शती तक कहीं नहीं मिलता है । यद्यपि मथुरा की ग्यारहवीं-बारहवीं शती की एक जिन प्रतिमा की पादपीठ में अंकित मुनि प्रतिमा को स्वस्त्र दिखाया गया है । किन्तु अभिलेख के आधार पर प्रतिमा स्पष्टतः
तिण्णव य पच्छाका, रओहरण- चोलपट्क- मुहणं
रत्ताणं च गोच्छओ, तकमादीयं । पण्हावागरणाई १०/१०
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