Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 487
________________ निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४७१ कल्पता है। इन उपकरणों में दण्ड, मात्रक, पात्र तथा चिलिमिलिका का प्रचलन तो श्वेताम्बर परम्परा में आज भी देखा जाता है किन्तु शेष उपकरण विशेष रूप से छाता एवं चर्म श्वेताम्बर परम्परा में कभो प्रचलन में रहे हों ऐसा ज्ञात नहीं होता । सम्भवतः ये उपकरण प्राचीन काल में चैत्यवासियों के द्वारा रखे गये होंगे अथवा फिर ये पापित्यों की परम्परा में रहे होंगे जो बाद में मान्य नहीं रहे । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी मांत्रक के अलग रखने की व्यवस्था सर्वप्रथम आर्यरक्षित के समय में हुई। ऐसी स्थिति में यह संदेह होता है कि भद्रबाहु के द्वारा रचित छेदसूत्रों में उनका उल्लेख कैसे आ गया। लगता है कि छेदसूत्रों एवं ओधनियुक्ति में भी वलभी वाचना के समय कुछ संशोधन या प्रक्षेप हुए हैं। ओघनियुक्ति में जिनकल्पी के लिए १२, सामान्यमुनि के लिए १४ और साध्वी के लिए २५ उपकरणों का उल्लेख उपलब्ध होता है । सामान्य मुनि के लिए जो १४ उपकरण निश्चित हुये वे निम्न हैं-पात्र, पात्रबंध, पात्र-स्थापन, पात्र-पटल, रजस्त्राण, गुच्छक, तीन प्रच्छादक, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, मात्रक और चोलपट्टक' | इन उपकरणों की सर्वप्रथम चर्चा हमें अंग-आगम साहित्य में प्रश्नव्याकरण में मिलती है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र लगभग सातवीं शती की रचना है। अतः उसका कथन ऐतिहासिक दृष्टि से परवर्ती है। इसलिए सर्वप्रथम ओघनियुक्ति में ही इनका उल्लेख १. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा मत्तए वा लठ्ठिया वा चेले वा चलचिलि मिलिया वा चम्मे वा चम्मकोसए वा चम्मपलिच्छेयणए वा"। व्यवहारसूत्र, ८५ . २. देखें-ओघनियुक्ति, गाथा ६६९,६७१,६७७ ३. पत्तंपत्ताबंधो पायट्ठवणं च पायकेसरिया। पडलाई रयत्ताणं च गुच्छओ पायनिज्जोगो॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपत्ती। एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पियाणं तु ।। एए चेव दुवालस मत्तग अइरेग चोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पम्मि ।। ___ ओधनियुक्ति, श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखाबावक, १९८९ गाथा-६६८,६६९,६७० ४. जंपि य समणस्स सुविहियस्स तु पडिग्गहधारिस्स भवति मायण-भंडोवहि उवगरणं पडिग्गहो पायबंधणं पायकेसरिया पायठवणं च पडलाइं तिण्णेव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550