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निर्ग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकासयात्रा
जैन परम्परा में मुनि के पात्रादि उपकरणों का विकास क्रमिक रूप से देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर लोकोपवाद से बचने के लिए एवं अहिंसा के परिपालन के निमित्त ही हुआ है। सर्वप्रथम यदि हम जैनागम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को लें तो उसमें निर्ग्रन्थों के लिए मात्र पाँच उपकरणों का उल्लेख हुआ है-वस्त्र, पात्र, कम्बल, पात्रोञ्छन और कटासन ( चटाई)।' इसमें भी कटासन (चटाई), आवश्यकता होने पर मांगकर बिछायी जाती थी। यदि हम आचारांग के इसी श्रुतस्कंध में वस्त्र धारण करने की स्थिति को देखते हैं तो उसमें अचेल, एकशाटक, सान्तरोत्तर (दो वस्त्रधारी) और तीन वस्त्रधारी ऐसे चार प्रकार के निर्ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । पुनः इन सभी को भी क्रमशः वस्त्र कम करते हुए अन्त में अचेल रहने का ही निर्देश दिया गया है । जहाँ तक आयिकाओं का प्रश्न है उन्हें एक-दो हाथ विस्तार वाली, दो-तीन हाथ विस्तार वाली एवं एक चार हाथ विस्तार वाली ऐसी कार संघाटि रखने का निर्देश है। २ ___ आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी यद्यपि वस्त्रादि उपकरणों को ग्रहण करने से सम्बन्धित विधि-निषेधों का विस्तार से उल्लेख हुआ है किन्तु उनमें कहीं भी वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों की संख्या में वृद्धि का १. वत्थं पडिग्गह, कंबलं पायपुछणं, उग्गहं च कडासणं । एतेसु चेव जाएज्जा।
आयारो ( आचारांग ) ११२।५।११२, और भी देखें आयारो १०८।१।१। २. क. जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायचउत्थेहि, तस्स णं णो एवं ___ भवति-चउत्थं वत्थं जाइस्सामि । वही १२८।४।४३ ख. जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायतइएहिं, तस्स णं णो एवं भवति
तइयं वत्थं जाइस्सामि ॥ वही १।८।५।६२ ग. जे भिक्खू एगेण वत्येण परिवुसिते पायबिइएण, तस्स णो एवं भवइ
बिइयं वत्थं जाइस्सामि ॥ वही १।८।६।८५ घ. अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णं वत्थं परिठ्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेत्ता-वही
१।८।६।९२ ङ. अदुवा अचेले । वही १।८।६।९३
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