Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 439
________________ यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४२३ क्षुधा वेदनीय की संभावना को स्वीकार किया है और न केवली के कवलाहार को मान्य किया। तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं कि चार घाती कर्मों को नष्ट करने वाले जिन भगवान में वेदनीय कर्म का सद्भाव होने से उसके निमित्त से होने वाले ग्यारह-परीषहों का भी सद्भाव माना जाता है। किन्तु सहकारी मोहनीय कर्म का उदय न होने से केवली में क्षुधादि की वेदना मानना उचित नहीं है। यह सत्य ही है, फिर भी यहाँ द्रव्य कर्मों की अपेक्षा से परीषह का वैसे ही उपचार किया गया है जैसे केवल ज्ञानी में चित्तवृत्ति के विकल्पों का अभाव होने पर भी कर्मों के नाश रूप फल की अपेक्षा से ध्यान का उपचार किया जाता है अथवा फिर यह मानना चाहिये कि जिन में ग्यारह-परीषह नहीं होते, क्योंकि सूत्र उपस्कार अध्याहार सहित होते हैं । तत्त्वार्थवार्तिक में अकलंकदेव ने भी लगभग पूज्यपाद को इसी १. एकादश जिने ॥ ९११ ॥ निरस्तघातिकर्मचतुष्टये जिने वेदनीयसद्भावात्तदाश्रया एकादशपरिषहाः सन्ति । ननु च मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्तः ? सत्यमेवमेतत्-वेदनाभावेऽपि द्रव्यकमंसद्भावापेक्षया परिषहोपचारः क्रियते, निरवशेषनिरस्तज्ञानातिशये चिन्तानिरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिहरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत् । अथवा-एकादश जिने 'न सन्ति' इति वाक्यशेषः कल्पनीयः; सोपस्कारत्वात्सूत्राणाम् । -तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धिटीका ९/११ २. एकादश जिने ॥ ९११ ॥ 'कैश्चित्कल्प्यन्ते' इति वाक्यशेषः । वेदनीयोदयभावात् क्षुधादिप्रसङ्ग इति चेत्, न; घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्य विरहात् ॥ १॥ स्यान्मतम् -घातिकर्मप्रक्षयान्निमित्तोपरमे सति नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनानि मा भूवन् , अमी पुनर्वेदनीयाश्रयाः खलु परीषहाः प्राप्नुवन्ति भगवति जिने इति; तन्न; किं कारणम् ? घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मन्त्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेन्धनस्यानन्ताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यान्तरायाभावान्निरन्तरमुपचीयमानशुभपुद्गलसन्ततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभावः, तत्सद्भावोपचाराद् ध्यानकल्पनवत् । अथवा, नायं वाक्यशेषः ‘एकादश जिनेकश्चित्कल्प्यन्ते' इति । किं तहि ? एकादश सन्तीति । कथम् १ उपचारात् । -तत्त्वार्थवार्तिक, ९/११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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