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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४६१
गणधर भी अचेल होते हैं और उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं । जो सवस्त्र है वह जिन के अनुरूप नहीं है, अर्थात् जिनकल्प का पालन नहीं करता है ।
१५. अचेल ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है । यदि अपने शरीर को वस्त्र से वेष्टित करके भी अपने को निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है, तो फिर अन्य परम्परा के साधु निर्ग्रन्थ क्यों नहीं कहे जायेंगे अर्थात् उन्हें भी निर्ग्रन्थ मानना होगा ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय परम्परा स्पष्ट रूप से अचेल - कत्व की समर्थक है । किन्तु उनके सामने एक समस्या यह थी कि वे आज श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत उन आगमों की माथुरी वाचना को मान्य करते थे, जिनमें वस्त्र पात्रादि ग्रहण करने के स्पष्ट उल्लेख थे । अतः उनके समक्ष दो प्रश्न थे - एक ओर अचेलकत्व का समर्थन करना और दूसरी ओर आगमिक उल्लेखों की अचेलकत्व के सन्दर्भ में सम्यक् व्याख्या करना । अपराजितसूरि ने इस सम्बन्ध में भगवती - आराधना की विजयोदया टीका में जो सम्यक् दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है वह अचेलकत्व के आदर्श के सम्बन्ध में यापनीयों की यथार्थं दृष्टि का परिचायक है ।
अपराजित ने सर्वप्रथम आगमों के उन सन्दर्भों को प्रस्तुत किया है, जिनमें वस्त्र पात्र सम्बन्धी उल्लेख हैं, फिर उनका समाधान प्रस्तुत किया है । वे लिखते हैं- "आचारप्रणिधि" अर्थात् दशवेकालिक' के आठवें अध्याय में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना करनी चाहिए । यदि पात्रादि नहीं होते तो उनकी प्रतिलेखना का कथन क्यों किया जाता ? पुनः आचारांग ' के लोकविचय नामक दूसरे अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में कहा गया है कि प्रतिलेखन ( पडिलेहण ) पादप्रोंछन ( पायपुच्छन ), अवग्रह ( उग्गह ) और कटासन ( कडासणं )
१. धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पायकंबलं ।
सेज्जमुच्चार भूमि च संथारं अदुवासणं ॥
दशवेकालिक, ८/१७, नवसुत्ताणि, संपा० युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्वभारती लाडनूं, १९६७, पृ० ६८
२ आचारांग, १/५/८९ संपा० - युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर ।
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