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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४६५ पास कोई छादन नहीं है, अतः मैं अग्नि का सेवन कर लें ऐसा भी नहीं सोचे।" इसी प्रकार उन्होंने उत्तराध्ययन के २३वें अध्याय की गाथायें उद्धृत करके यह बताया कि पार्श्व का धर्म सान्तरोत्तर था। महावीर का धर्म तो अचेलक ही था। पुनः दशवैकालिक में मुनि को नग्न और मुण्डित कहा गया है। इससे भी आगम में अचेलता ही प्रतिपाद्य हैयह सिद्ध होता है। ___ इस प्रकार यापनीय उत्सर्ग मार्ग में अचेलता के समर्थक थे इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता किन्तु अपवाद मार्ग में वे वस्त्र की ग्राह्यता को स्वीकार करते थे। भगवती आराधना के निम्न सन्दर्भ से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
उसमें कहा गया है कि साधना की दृष्टि से जब साधक को यह अनुभव होता है कि मैंने दीर्घकाल तक संयम पर्याय का शास्त्र के अनुसार पालन किया तथा शिष्यादि तैयार कर उन्हें वाचना दी, अब मुझे अपना हित करना ही श्रेय है, तब उसे संघ से अलग होकर अथालन्द विधि, भक्तपरिज्ञा, इंगिनिमरण, परिहार विशुद्ध चारित्र, पादोपउपगमन अथवा जिनकल्प धारण करके विचरण करना चाहिए। इसके पश्चात् भगवती आराधना टीका में अपराजित सूरि ने इन छहों विधियों के आचार-विचार का विस्तार से विवरण दिया है। उस चर्चा में उन्होंने परिहार संमय की भी चर्चा को है। उसमें परिहार समय को एक उपधि धारण करने वाला बताया है। आगे यह भी कहा गया है कि वे संघ से उपकरण आदि के दान का संबंध नहीं रखते हैं मात्र गृहस्थ अथवा अन्य लिंग के द्वारा दिया गया उपकरण ही ग्रहण करते हैं। इसी की टीका के पश्चात् उन्होंने निम्न गाथा उद्धृत की है
कप्पट्टि दो णुकप्पी भुजणसंघाडदाण गहणे वि ।
सवासवंदणालावणाहि भुजन्ति अण्णोण्णं । इस प्रसंग में विचारणीय यह है कि वे कल्पस्थित अनुकंपा करने वाले से भोजन और संघाटि का दान ग्रहण करते हैं। ज्ञातव्य है कि यहाँ भुजन संघाड दान गहने का अर्थ है भोजन और संघाटि का दान प्राप्त करना । लिंग विचार में उसको एक उपधि से युक्त कहना और प्रस्तुत प्रसंग में संघाटि का दान ग्रहण करना यही सूचित करता है कि
१. भगवती आराधना भाग १ पृ० २०४
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