________________
जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४५९ ९. अचेल में माया ( छिपाने को प्रवृत्ति ) नहीं होती अतः उसमें आर्जव ( सरलता ) धर्म भी होता है ।
१०. अचेल शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि परीषहों को सहता है अतः उसे घोर तप भी होता है।
संक्षेप में अचेलकत्व के पालन में सभी दस श्रमण धर्मों एवं पंच महाव्रतों का पालन होता है ।
पुनः अचेलकत्व की प्रशंसा करते हुए वे लिखते हैं
१. अचेलता से शुद्ध संयम का पालन होता है, पसीने, धूल और मैल से युक्त वस्त्र में उसी योनि वाले और उसके आश्रय से रहने वाले त्रस जीव तथा स्थावर जीव उत्पन्न होते हैं । वस्त्र धारण करने से उन्हें बाधा भी उत्पन्न होती है । जीवों से संसक्त वस्त्र धारण करने वाले के द्वारा उठने, बैठने, सोने, वस्त्र को फाड़ने, काटने, बाँधने, धोने, कूटने, धूप में डालने से जोवों को बाधा ( पीड़ा ) होती है, जिससे महान असंयम होता है।
२अचेलता से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है, जिस प्रकार सो से युक्त जंगल में व्यक्ति बहुत सावधान रहता है उसी प्रकार जो अचेल होता है वह इन्द्रियों ( कामवासना ) पर विजय प्राप्त करने में पूर्णतया सावधान रहता है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर शरीर में विकार (कामोत्तेजना) उत्पन्न होने पर लज्जित होना पड़ता है।।
३. अचेलता का तीसरा गुण कषाय रहित होना है, क्योंकि वस्त्र के सद्भाव में उसे चोरों से छिपाने के लिए मायाचार करना होता है । वस्त्र होने पर मेरे पास सुन्दर वस्त्र है, ऐसा अहंकार भी हो सकता है, वस्त्र के छीने जाने पर क्रोध तथा उसकी प्राप्ति में लोभ भी हो सकता है। जबकि अचेलक में ऐसे दोष उत्पन्न नहीं होते हैं। ___ ४. सवस्त्र होने पर सुई, धागा, वस्त्र आदि की खोज में तथा उसके सीने, धोने, प्रतिलेखना आदि करने में ध्यान और स्वाध्याय का समय नष्ट होता है । अचेल को ध्यान-स्वाध्याय में बाधा नहीं होती।
५. जिस प्रकार बिना छिलके ( आवरण ) का धान्य नियम से शुद्ध होता है, किन्तु छिलके युक्त धान्य की शुद्धि नियम से नहीं होती, वह भाज्य होती है । उसी प्रकार जो अचेल है उसकी शुद्धि निश्चित होती १. भगवती आराधना ( पं० कैलाशचन्द्रजी ) भाग १ गाथा २३ की टीका
पृ० ३२१-३२२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org