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४५८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
जिनकल्प का विच्छेद बताकर अचेललिंग का निषेध कर रही थी, वहाँ यापनीय परम्परा समर्थं साधक के लिए हर युग में अचेलता का समर्थन करती है । जहाँ श्वेताम्बर परम्परा वस्त्र ग्रहण को सामान्य नियम या उत्सर्ग मार्ग मानने लगी वहाँ यापनीय परम्परा उसे अपवाद मार्ग के रूप में ही स्वीकार करती रही, अतः उसके अनुसार आगमों में जो वस्त्रपात्र सम्बन्धी निर्देश हैं, वे मात्र आपवादिक स्थितियों के हैं । दुर्भाग्य से मुझे यापनीय ग्रन्थों में इस तथ्य का कहीं स्पष्ट निर्देश नहीं मिला कि आपवादिक लिंग में कितने वस्त्र या पात्र रखे जा सकते थे ।
यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना' की टीका में यापनीय आचार्य अपराजित सूरि लिखते हैं कि चेल (वस्त्र) का ग्रहण, परिग्रह का उपलक्षण है अतः समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग ही आचेलक्य है । आचेलक्य के लाभ या समर्थन में आगे वे लिखते हैं
१. अचेलकत्व के कारण त्याग धर्म ( दस धर्मों में एक धर्म ) में प्रवृत्ति होती है ।
२. जो अचेल होता है, वही अकिंचन धर्मं के पालन में तत्पर होता
३. परिग्रह (वस्त्रादि ) के लिये हिंसा ( आरम्भ ) में प्रवृत्ति होती है, जो अपरिग्रही है, वही हिंसा ( आरम्भ ) नहीं करता है । अतः पूर्ण अहिंसा के पालन के लिये अचेलता आवश्यक है ।
४. परिग्रह के लिए ही झूठ बोला जाता है । बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के अभाव मैं झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, अतः अचेल - मुनि सत्य ही बोलता है ।
५. अचेल में लाघव भी होता है ।
६. अचेल धर्म का पालन करने वाले का अदत्त का त्याग भी सम्पूर्ण होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर हो बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है ।
७. परिग्रह के निमित्त कषाय ( क्रोध ) होता है अतः परिग्रह के अभाव में क्षमा भाव रहता है ।
८. अचेल को सुन्दर या सम्पन्न होने का मद भी नहीं होता, अतः उसमें आर्जव ( सरलता ) धर्मं भी होता है ।
१. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, संपादक - कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९३८, पृ० ३२४
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