Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 472
________________ ४५६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय इससे इतना तो अवश्य प्रतिफलित होता है कि विवाद का मूलभूत विषय धर्म-विनय अर्थात् श्रमणाचार से ही सम्बन्धित रहा होगा । अतः उसका एक पक्ष वस्त्र - पात्र रखने या न रखने से सम्बन्धित हो सकता है । इन समस्त चर्चाओं से यह प्रतिफलित होता है कि सचलता और अलता की समस्या निर्ग्रन्थ संघ की एक पुरानी समस्या है और इसका आविर्भाव पार्श्व और महावीर के निर्ग्रन्थ संघ के सम्मेलन के साथ हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि जहाँ एक ओर आजीवकों की अचेलता ने महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थान पाया, वहीं पार्श्व की सचेल परम्परा ने भी उसे प्रभावित किया । परिणामस्वरूप वस्त्र के सम्बन्ध में महावोर के निर्ग्रन्थ संघ में एक मिली-जुली व्यवस्था स्वीकार की गई । उत्सर्ग मार्ग में अचेलता को स्वीकार करते हुए भी आपवादिक स्थितियों में वस्त्र ग्रहण की अनुमति दी गयी । पालित्रिपिटक में आजीवकों को सर्वथा अचेलक और निर्ग्रन्थ को एकशाटक कहा गया है और इसी आधार पर वे आजीवकों और निर्ग्रन्थ में अन्तर भी करते हैं और आजीवकों के लिए अचेलक शब्द का भी प्रयोग करते हैं । धम्मपद की टीका में बुद्धघोष कहते हैं कि कुछ भिक्षु अचेलकों की अपेक्षा निर्ग्रन्थ को वरेण्य समझते हैं क्योंकि अचेलक तो सर्वथा नग्न रहते हैं, जबकि निर्ग्रन्थ प्रतिच्छादन रखते हैं ।' बुद्धघोष के इस उल्लेख से भी यह प्रतिफलित होता है कि निर्ग्रन्थ नगर प्रवेश आदि के समय जो एक वस्त्र ( प्रतिच्छादन) रखते थे, उससे अपनी नग्नता छिपा लेते थे । इस प्रकार मूल त्रिपिटक में निर्ग्रन्थ को एकशाटक कहना, पुनः बुद्धघोष द्वारा उनके द्वारा प्रतिच्छादन रखने का उल्लेख करना और मथुरा से प्राप्त निर्ग्रन्थ मुनियों के अंकन में उन्हें एक वस्त्र से अपनी नग्नता छिपाते हुए दिखाना - ये सब साक्ष्य यही सूचित करते हैं कि उत्तर भारत में निर्ग्रन्थ संघ में कम से कम ई. पू. चौथी - तीसरी शताब्दी से एक वस्त्र रखा जाता था और यह प्रवृत्ति बुद्धघोष के काल तक अर्थात् ईसा की दूसरीतीसरी शताब्दी तक भी प्रचलित थी । वस्त्र के सम्बन्ध में यापनीय दृष्टिकोण यापनीय परम्परा का एक प्राचीन ग्रन्थ भगवतीआराधना है । इसमें दो प्रकार के लिंग बताये गये हैं - १. उत्सर्गलिंग ( अचेल ) और १. धम्मपद अट्टकथा तितिओभागो, गाथा- ४८९ की अट्टकथा | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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