________________
४५० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
आवश्यकताएँ एवं संयम अर्थात् अहिंसा की परिपालना ही प्रमुख थी । निर्ग्रन्थ संघ में जब अपरिग्रह महाव्रत के स्थान पर अहिंसा महाव्रत की परिपालना पर अधिक बल दिया गया तो प्रतिलेखन या पिच्छी से लेकर क्रमश: अनेक उपकरण बढ़ गये । श्वेताम्बर परम्परा के मान्य कुछ परवर्ती आगमों में मुनि के जिन चौदह उपकरणों का उल्लेख मिलता है उनमें अधिकांश पात्र - पोंछन, पटल आदि के कारण होने वाली जीव हिंसा से बचने के लिए ही है । ओघनियुक्ति' में स्पष्ट उल्लेख है कि जिन ने षटुकाय जीवों के रक्षण के लिए ही पात्र ग्रहण की अनुज्ञा दी है ।
शारीरिक सुख-सुविधा और प्रदर्शन की दृष्टि से जो वस्त्रादि उपकरणों का विकास हुआ है वह बहुत ही परवर्ती घटना है और प्राचीन स्तर के मान्य आगमों से सम्मत नहीं है और भुनि आचार का विकृत रूप ही है । यह विकार यति परम्पराके रूप में - श्वेताम्बरों और भट्टारक परम्परा के रूप में दिगम्बरों- दोनों में आया है ।
किन्तु जो लोग वस्त्र के सम्बन्ध में आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि वस्त्र का ग्रहण एक मनोदैहिक एवं सामाजिक आवश्यकता थी और उससे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परायें प्रभावित हुई हैं । दिगम्बर परम्परा में ऐलक और क्षुल्लक की व्यवस्था तो इस आवश्यकता की सूचक है ही, किन्तु इसके साथ ही साथ उनमें जो सवस्त्र भट्टारक की परम्परा का विकास हुआ, उसके पीछे भी उपरोक्त मनोदैहिक कारण और लांकिक परिस्थितियाँ ही मुख्य रहीं। क्या कारण था कि अचेलता की समर्थक इस परम्परा में भी लगभग १००० वर्षों तक नग्न मुनियों का अभाव रहा । आज दिगम्बर परम्परा में शान्तिसागरजी से जो नग्न मुनियों की परम्परा पुनः जीवित हुई है, उसका इतिहास तो १०० वर्ष से अधिक का नहीं है । लगभग ग्यारहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक दिगम्बर मुनियों का प्रायः अभाव ही रहा है ।
आज इन दोनों परम्पराओं में सचेलता और अचेलता के प्रश्न पर जो इतना विवाद खड़ा कर दिया गया है, वह दोनों की आगमिक व्यव
१. छक्कायरवखणट्ठा पायग्ग्रहणं जिणेहि पन्नत्तं ।
जे य गुणा संभोये हवंति ते पायगहणेवि ॥
- ओघनियुक्ति, ६९१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org