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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४३७
कृतांग ( लगभग तीसरी-चौथी शती ), उत्तराध्ययन ( ई० पू० दूसरी शती), आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ई० पू० दूसरी शती) एवं भगवती ( ई० पू० दूसरी शती से लेकर ईसा की दूसरी शती तक ) के उल्लेख महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें भी ऋषिभाषित और सूत्रकृतांग में पार्श्व की वस्त्र सम्बन्धी मान्यताओं की स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती। उत्तराध्ययन का तेवीसवाँ अध्ययन ही एक मात्र ऐसा आधार है जिसमें महावीर के धर्म को अचेल एवं पाश्र्व के धर्म को सचेल या सान्तरोत्तर कहा गया है। इससे यह स्पष्ट है कि वस्त्र के सम्बन्ध में महावीर
और पार्श्व की परम्पराएँ भिन्न थीं। उत्तराध्ययन की प्राचीनता निर्विवाद है और उसके कथन को अप्रमाण नहीं माना जा सकता । पुनः नियुक्ति, भाष्य आदि परवर्ती आगमिक व्याख्याओं से भी इसी तथ्य की पुष्टि होतो है। अतः इस कथन की सत्यता में सन्देह करने का कोई स्थान शेष नहीं रहता है। किन्तु पार्श्व की परम्परा के द्वारा मान्य "संतरुत्तर" शब्द का क्या अर्थ है-यह विचारणीय है। संतरुत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने विशिष्ट, रंगीन एवं बहुमूल्य वस्त्र किया है। उत्तराध्ययन की टीका में नेमिचन्द्र लिखते है-सान्तर अर्थात् वर्धमान स्वामी की अपेक्षा परिमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा उत्तर अर्थात् महामूल्यवान होने से प्रधान, ऐसे वस्त्र जिस परम्परा में धारण किये जावें वह धर्म सान्तरोत्तर है। किन्तु सान्तरोत्तर ( संतरुत्तर) शब्द का यह अर्थ समुचित नहीं है। वस्तुतः जब श्वेताम्बर आचार्य अचेल का अर्थ कुत्सितचेल या अल्पचेल करने लगे, तो यह स्वाभाविक था कि सांतरोत्तर का अर्थ विशिष्ट, महामूल्यवान रंगीन वस्त्र किया जाय, ताकि अचेल के परवर्ती अर्थ में और संतरुत्तर के अर्थ में किसी १. वही, २३/२९ । २. "जो इमो" त्ति पश्चायं सान्तराणि वर्धमानस्वामियत्यपेक्षया मानवर्ण
विशेषतः सविशेषाणि उत्तराणि-महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद् वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो धर्मः पाइँन देशित इतीहाऽप्यपेक्ष्यते । उत्तराध्ययन, नेमिचन्द कृत सुखबोधावृत्ति सहित २३/१२ पृ० २९५, बाला
पुर, वीर सं० २४६३ । ३. परिसुद्ध जुण्णं कुच्छित थोवाण्णियत डण्ण भोग भोगेहि ।
मुणयो मुच्छारहिता संतेहि अचेलया होंति ॥ विशेषावश्यकभाष्य, ३०८२, संपादक-दलसुख मालवणिया, लालभाई, दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद, १९६८ ।
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