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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४३५ ऋषभ और अरिष्टनेमि प्रागैतिहासिक काल के हैं। वेदों में इनके नामों के उल्लेखों के अतिरिक्त हमें इनके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती । वेदों में ये नाम भी किस सन्दर्भ में प्रयुक्त हुए हैं और किसके वाचक हैं, ये तथ्य आज भी विवादास्पद ही हैं। इन दोनों के जीवन वृत्त के सम्बन्ध में जैन एवं जैनेतर स्रोतों से जो भी सामग्री उपलब्ध होती है वह ईसा की प्रथम शती के पूर्व की नहीं है।
वेदों एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों में व्रात्यों एवं वातरशना मुनियों के जो उल्लेख हैं,' उनसे इतना तो अवश्य फलित होता है कि प्रागैतिहासिक काल में नग्न अथवा मलिन एवं जीर्णवस्त्र धारण करने वाले श्रमणों की एक परम्परा अवश्य थी। सिन्धुघाटी-सभ्यता की मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से जो नग्न योगियों के अंकन वाली सोलें प्राप्त हइ हैं उनसे भी इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि नग्न एवं मलिन वस्त्र धारण करने वाले श्रमणों/योगियों व्रात्यों की एक परम्परा प्राचीन भारत में अस्तित्त्व रखती थी। उस परम्परा के अग्र-पुरुष के रूप में ऋषभ या शिव को माना जा सकता है। किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि इन सीलों में उस योगी को मुकुट और आभूषणों से युक्त दर्शाया गया है जिससे उसके नग्न निर्ग्रन्थमुनि होने के सम्बन्ध में बाधा आती है । यद्यपि ये अंकन श्वेताम्बर तीर्थकर मूर्तियों से आंशिक साम्यता रखते हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्तियों को आभूषण पहनाते हैं। ऋषभ का अचेल धर्म
प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगमों में उत्तराध्ययन में ऋषभ के नाम का उल्लेख मात्र है उनके जीवन के सन्दर्भ में कोई विवरण नहीं है। इससे अपेक्षाकृत परवर्ती कल्पसत्र एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ही सर्वप्रथम उनका जीवनवृत्त मिलता है, फिर भी इनमें उनकी साधना एवं आचारव्यवस्था का कोई विशेष विवरण नहीं है। परवर्ती श्वेताम्बर, दिगम्बर ग्रन्थों में और उनके अतिरिक्त हिन्द-पुराणों तथा विशेष रूप से भागवत में ऋषभदेव के द्वारा अचेलकत्व के आचरण के जो उल्लेख मिलते हैं, १. मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मलाः ।
बातस्यानु ध्राजिम यन्ति यददेवासो अविक्षत् ।। ऋग्वेद, १०/१३६/२ २. ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचाए : एक अध्ययन, डॉ० सागरमल
जैन, संस्कृति संधान-Vol. VI, पृ० २२ राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी-१९९३, ।।
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