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४३६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
उन सबके आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि ऋषभदेव अचेल परम्परा के पोषक रहे होंगे ।" ऋषभ अचेल धर्म के प्रवर्तक थे, यह मानने में सचेल श्वेताम्बर परम्परा को भी कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि उसकी भी मान्यता यही है कि ऋषभ और महावीर दोनों ही अचेल धर्म के सम्पोषक थे । २
ऋषभ के पश्चात् और अरिष्टनेमि के पूर्व मध्य के २० तीर्थंकरों के जीवनवृत्त एवं आचार-विचार के सम्बन्ध में छठी शती के पूर्व अर्थात् सम्प्रदायों के स्थिरीकरण के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है । मात्र अर्धमागधी आगमों में समवायांग में और शौरसेनी आगम-तुल्य ग्रन्थ तिलोयपणत्ति में नाम, माता-पिता, जन्म-नगर आदि सम्बन्धी छिटपुट सूचनाएँ हैं, जो प्रस्तुत चर्चा की दृष्टि से उपयोगी नहीं है ।
इस प्रकार मध्यवर्ती बावीस तीर्थंकरों में से मात्र बावीसवें अरिष्टनेमि एवं तेवीसवें पार्श्व ही ऐसे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएँ उत्तरा-ध्ययन के क्रमशः बावीसवें एवं तेवीसवें अध्याय में मिलती है, किन्तु उनमें भो बावीसवें अध्याय में अरिष्टनेमि की आचार व्यवस्था का और विशेष रूप से वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी परम्परा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । उत्तराध्ययन के बावीसवें अध्याय में राजीमति के द्वारा गुफा में वर्षा के कारण भीगा हुआ अपना वस्त्र सुखाने का उल्लेख होने से केवल एक ही तथ्य की पुष्टि होती है कि अरिष्टनेमि की परम्परा में साध्वियां सवस्त्र होती थीं। 3 उस गुफा में साधना में स्थित रथनेमि सवस्त्र थे या निर्वस्त्र थे, ऐसा कोई स्पष्ट संकेत इसमें नहीं है । अतः वस्त्र सम्बन्धी विवाद में केवल पार्श्व एवं महावीर इन दो ऐतिहासिक काल के तीर्थंकरों के सम्बन्ध में ही जो कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर ही चर्चा की जा सकती है ।
पार्श्व का सचेल धर्म
पार्श्व के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध हैं उनमें भी प्राचीनता की दृष्टि से ऋषिभाषित ( लगभग ई० पू० चौथी - पाँचवीं शती),
सूत्र
१. श्रीमद्भागवत, २/७/१० 1
२. ( अ ) उत्तराध्ययनसूत्र, २३ / २६ ।
(ब) यथोक्तम् पुरिम पच्छिमाणं अरहंताणं भगवंताणं अचेलये पसत्थे भवइ । उत्तराध्ययन, नेमिचन्द की टीका २/१३, श्री आत्मवल्लभ, ग्रंथांक-२२, बालापुर - १९३७, पृ० २२ में
उद्धृत
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३. उत्तराध्ययन, २२ / ३३-३४ ।
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