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४३८ : जैनधर्मं का यापनीय सम्प्रदाय
प्रकार से संगति स्थापित की जा सके । किन्तु संतरुत्तर का यह अर्थ शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से उचित नहीं है । इससे इन टीकाकारों की अपनी साम्प्रदायिक मानसिकता ही प्रकट होती है। संतरुत्तर के के वास्तविक अर्थ को आचार्य शीलांक ने अपनी आचारांग टीका में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। ज्ञातव्य है कि संतरुत्तर शब्द उत्तराध्ययन के अतिरिक्त आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी आया है । आचारांग में इस शब्द का प्रयोग उन निर्ग्रन्थ मुनियों के सन्दर्भ में हुआ है, जो दो वस्त्र रखते थे । उसमें तीन वस्त्र रखने वाले मुनियों के लिए कहा गया है कि हेमन्त के बीत जाने पर एवं ग्रीष्म ऋतु के आ जाने पर यदि किसी भिक्षु के वस्त्र जीणं हो गये हों तो वह उन्हें स्थापित कर दे अर्थात् छोड़ दे और सांतरोत्तर ( संतरुत्तर ) अथवा अल्पचेल ( ओमचेल ) अथवा एकशाटक अथवा अचेलक हो जाये । यहाँ संतरुत्तर की टीका करते हुए शीलांक कहते हैं कि अन्तर सहित है उत्तरीय ( ओढ़ना ) जिसका, अर्थात् जो वस्त्र की आवश्यकता होने पर कभी ओढ़ लेता है और कभी पास में रख लेता है ।
पं० कैलाशचन्द्वजी ने संतरुत्तर की शीलांक की उपरोक्त व्याख्या से यह प्रतिफलित करना चाहा कि पार्श्व के परम्परा के साधु रहते तो नग्न ही थे, किन्तु पास में वस्त्र रखते थे, जिसे आवश्यकता होने पर ओढ़ लेते थे । किन्तु पण्डितजी की यह व्याख्या युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि १. अहपुण एवं जाणिज्जा - उवाइक्कते खलु हेमंते गिम्हें पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाइं परिट्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले ।
अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थं शीतपरोक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् — सान्तरमुत्तरं - प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित्प्रावृणोति क्वचित्पाबिर्भात, शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात्, द्वि कल्पधारीत्यर्थः अथवा शनैः-शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् तत् एकशाटकः संवृत्तः अथवाऽऽत्यन्तिकेशीता - भावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति ।
२. देखें उपरोक्त ।
३. देखें उपरोक्त ।
४. देखें उपरोक्त ।
५.
कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास ( पूर्वपीठिका), श्री गणेश - प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, वी० नि० सं० २४८९, पृ० ३९९ ।
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