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यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४२९
अन्तरायों का दर्शन होने पर भी वे अन्तराय रूप नहीं माने जा
सकते ।
वीतराग को कायक्लेश रूप दुःख होते हैं - इस तथ्य को तो दिगम्बर आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्तमीमांसा ( ३ । ९३ ) में स्वीकार किया है ।" इससे यह फलित होता है कि - श्वेताम्बर मान्य आगम तत्त्वार्थं - सूत्र, तत्त्वार्थभाष्य, षट्खण्डागम और समन्तभद्र की आप्तमीमांसा के रचना काल तक अर्थात् लगभग ५ वीं शती तक केवली-भुक्ति को सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता था । सर्व प्रथम कुन्दकुन्द ने ( लगभग छठीं शती) तीर्थंकर के अतिशयों की चर्चा के प्रसंग में केवली के आहार-निहार का निषेध किया । ज्ञातव्य है कि इसके पूर्व श्वेताम्बर परम्परा में उनका आहार-निहार मानते हुए भी उसे चर्म चक्षुओं से अगोचर मान लिया था, इस कल्पना में कुन्दकुन्द उससे एक कदम आगे निकल गये । केवली में अतिशयों की कल्पना जब और अधिक विकसित हुई तो उनमें रोगादि का अभाव के साथ-साथ और उनका शरीर - हाड़, मांस, रुधिर, मल-मूत्र आदि अशुचियों से रहित परम औदारिक मान लिया गया; फलतः उमास्वाति ने केवली में जो ग्यारह परीषह माने थे, उसमें बाधा प्रतीत होने लगी । अतः तत्त्वार्थसूत्र की ७वीं८वीं शती में लिखी गई दिगम्बर टीकाओं में केवली में ग्यारह परीषह का अभाव दिखाने हेतु पूज्यपाद, अकलंक एवं विद्यानन्दि द्वारा तर्क दिये गये । इनका प्रत्युत्तर तो यापनीय आचार्यों ने दिया होगा, किन्तु इस सम्बन्ध में उनकी कोई कृति आज उपलब्ध नहीं है । जयधवला टीका ( ९वीं शती) से ऐसा लगता है कि जयधवलाकार ने अपने युग के यापनीय आचार्यों के तर्कों का ही उत्तर दिया है - इसके पश्चात् लगभग १०वीं शती में यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने इन सबका उत्तर देने हेतु केवली भुक्ति प्रकरण नामक एक स्वतंत्र ग्रन्थ लिखा । ग्यारहवीं शती के लगभग रचित प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र एवं कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की टीकाओं में जहाँ दिगम्बर आचार्यों ने शाकटायन के केवली भुक्ति प्रकरण का खण्डन किया, वहाँ श्वेताम्बर
१. पुण्य ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुख तो यदि । वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युज्ज्यरान्निमित्ततः ॥
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-आप्तमीमांसा ३।९३
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