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४२८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय है-यह मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि आगम में इन अतिशयों का तो उल्लेख है, किन्तु भूख के अभाव नामक अतिशय का उल्लेख नहीं है।
(१४) वेदनीय कर्मजन्य रोगादि के समान ही केवली में क्षुधा-वेदना मानने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि 'जिन' में सामान्य रूप से एकादश परिषहों का सद्भाव तो माना ही गया है।
(१५) तत्त्वार्थसूत्र में 'एकादश जिने' नामक सूत्र में वाक्य शेष के अध्याहार की कल्पना तभी की जा सकती है जबकि उस सूत्र को अधूरा माने या उसमें बिना कुछ जोड़े उसका अर्थ नहीं निकलता हो। प्रो० हीरालाल जैन के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग में यदि वाक्य शेष की कल्पना करनी है, तो एकादश के साथ 'परीषहः' का और वाक्यपूर्ति के लिए अन्त में 'सन्ति' का अध्याहार करना होगा। जिससे परिपूर्ण वाक्य होगा-एकादशः परीषहाः जिने सन्ति । प्रस्तुत सूत्र में 'न सन्ति' जोड़ने का अथवा 'केश्चित कल्पयन्ते' का अध्याहार करने का कोई आधार नहीं बनता है। यदि हम इसमें 'न सन्ति' जोड़ते हैं तो इसका अर्थ होगा-जिन भगवान में ग्यारह परीषह नहीं होते । जिसका स्पष्ट फलित यह है कि शेष ग्यारह होते हैं। इस प्रकार 'न सन्ति' जोड़ने से यह सूत्र केवली में परीषह का अभाव सूचक नहीं बन पाता है। यदि हम इसके स्थान पर 'केश्चित् कल्पयन्ते' जोड़ते हैं तो इसका अर्थ होगा कि कुछ आचार्य 'जिन' में एकादश परोषह मानते हैं । इसके फलितार्थ के रूप में चाहे एकादश परीषह नहीं मानने वालों को कल्पना भी कर ली जाए किन्तु उससे जिन में एकादश परीषह होते हैं, इस मान्यता का निषेध तो नहीं होता है। अतः यह वाक्य शेष की कल्पना ही निराधार प्रतीत होती है। यदि 'जिन' में एकादश परिषहों का सद्भाव माना जाता है, तो उसमें क्षुधा वेदनीय का उदय भी मानना होगा और इस प्रकार केवली के कवलाहार की पुष्टि होगी ।
(१६ ) यदि कहा जाए कि केवली भगवान के सर्वज्ञ होने के कारण भोजन के समय उन्हें रक्त, माँस आदि का दर्शन भी होगा और केवली भगवान इन अन्तरायों को देखते हुए कैसे भोजन ग्रहण कर सकते हैं ? किन्तु जिस प्रकार परम अवधि ज्ञान के धारक छद्मस्थ मुनियों को भी रुधिर-मांस आदि का दर्शन होता है किन्तु इन्द्रिय ज्ञान का विषय न होने से उसे अन्तराय नहीं माना जाता है, उसी प्रकार केवली को भी
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