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४२६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
है । अतः उनमें क्षुधा - वेदनीय एवं कवलाहार मानना होगा, क्योंकि उसके अभाव में आयुष्य पर्यन्त उनको दैहिक स्थिति भी सम्भव नहीं होगी जैसे तेल के अभाव में दीपक की, जलागम के अभाव में जलधारा की स्थिति नहीं होती है, वैसे ही - भोजन के अभाव में केवली के औदारिक शरीर की स्थिति भी नहीं है ।
(३) पुनः केवली के ज्ञानादि गुण भी क्षुधा वेदनीय एवं कवलाहार के विरोधी नहीं हैं । जैसे प्रकाश के होने पर अंधकार नष्ट होता है, वैसे ही ज्ञानादि गुणों की वृद्धि के साथ क्षुधा भी नष्ट होती हो, ऐसा नियम नहीं है । प्रकाश एवं अन्धकार के समान ज्ञान और क्षुधा में विलोम सम्बन्ध नहीं है, किशोर एवं युवावस्था में क्षुधा और ज्ञान दोनों में ही समान रूप से वृद्धि होती है ।
(४) यदि यह कहा जाय कि क्षुधा दुःख रूप है, अनन्तसुख की विरोधी है, अतः अनन्तसुख से युक्त केवली में क्षुधावेदनीय या आहार की आकांक्षा मानना उचित नहीं है। तो इसका उत्तर यह है कि ज्ञानादि गुणों की तरह सुख का भी क्षुधा से पूर्णतः विरोध नहीं है । भोजन करने से सुख होता है, अतः अनन्त सुख से युक्त व्यक्ति भोजन नहीं करे, यह नियम नहीं बनता है ।
(५) जिस प्रकार सर्दी, गर्मी आदि की अनुभूति मोह का परिणाम नहीं होती, उसी प्रकार क्षुधा की अनुभूति भो मोह का परिणाम नहीं है। आहार पर्याप्ति का कारण तेजस एवं औदारिक शरीर हैं और केवली में उनकी उपस्थिति होती है, अतः उन्हें क्षुधा की अनुभूति होती है । वस्तुतः सभो शारीरिक अनुभूतियाँ मोह जनित ही होती हों, ऐसा नियम नहीं है । श्वसन, पाचन आदि अनेक शारीरिक अनुभूतियाँ एवं क्रियाएं ऐसी हैं जो मोह का परिणाम नहीं हैं । अतः मोह के अभाव में भी क्षुधा वेदनीय और आहार ग्रहण सम्भव है । जिस प्रकार श्वसन सहज शारीरिक क्रिया है, उसी प्रकार भूख-प्यासादि भी सहज शारीरिक क्रियाएँ हैं ।
(६) केवलो में क्षुधादि को संवेदना नहीं है, यह कथन आगम का विरोधी हैं क्योंकि आगम में केवली के क्षुधादि की संवेदना एवं कवलाहार के उल्लेख हैं । यापनीय अर्धमागधी एवं शौरसेनी आगमों को मान्य करते थे; इस लिये शाकटायन पाल्यकीर्ति ने स्त्री-मुक्ति और केवलीभुक्ति प्रकरण में स्थान-स्थान पर आगम - प्रामाण्य का उल्लेख किया ।
(७) क्षुधादि का उदय मानकर भी उसका विपाक ( क्षुधा - वेदना )
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