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: १०७
२
१०७
४
११० १
* १११ ६
संज्ञाः । सम
नातिवर्तत इति
- र्गतं करणमित्यु
पताकेति ।
अपेतस्य
१११ ७
११३ ७ बहुषु बहुविधेष्वपि
११७ ३ द्वित्रिसिक्तः द्वित्र्यादिषु
- १९७५
- १२०
- १३१
५ प्रतीत्या व्यु -
३
ताभ्याम् । तयोः
"१३४ १०
नारूपेष्विति
- ज्ञानमवध्यज्ञानं
१४० १ १४० ८ - प्रवणप्रयोगो
तत्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २९७
संज्ञाः । समनातिवर्तन्त इति -र्गतःकरणमन्तःकरणमित्यु
पताका वेति ।
अवेतस्य
बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहुविधेष्वपि
द्वित्रासिक्त :
द्वित्रादिषु प्रतीत्य व्यु -
ताभ्यां विशुद्धयप्रतिपाता
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भ्याम् । तयोः
नारूपिष्विति
ज्ञानं विभंगज्ञानं प्रवणः प्रयोगो
ज्ञातव्य है कि यह भी सम्पूर्ण सूची नहीं है । इसी अध्याय के 'द्रव्यवेद -स्त्रीणां आदि परिवर्तित पाठों का भी इसमें समावेश नहीं है ।
वस्तुतः पण्डित फूलचन्दजी ने सवार्थसिद्धि में पाठान्तर के नाम पर जो इतना अधिक परिवर्तन कर डाला, हमारी दृष्टि में वह मात्र पाठभेद से सम्बन्धित ही नहीं है, वह तो सिद्धान्त भेद से भी सम्बन्धित है । उनको जहाँ कहीं भी सवार्थसिद्धि के पाठ वर्तमान दिगम्बर परम्परा की मान्यता के प्रतिकूल लगे, उन्होंने वे सभी पाठ पाठशुद्धि के नाम पर बदल डाले । आगम में द्रव्यवेद का तात्पर्य सदैव हो ' स्त्री-शरीर ( स्त्री'लिंग ) से और भावभेद का तात्पर्य स्त्री सम्बन्धो कामवासना ( स्त्रीवेद ) से माना गया था, अतः सर्वार्थसिद्धिकार ने मनुष्यनी का अर्थ द्रव्यस्त्री किया । किन्तु ऐसा मान्य कर लेने पर षट्खण्डागम की स्त्रीमुक्ति की अवधारणा का निषेध करने हेतु आगे चलकर उसकी धवला टीका में जो भाव स्त्री की चर्चा उठी है-उससे सर्वार्थसिद्धि का मन्तव्य भिन्न हो जाता । अतः पण्डित जी ने सर्वार्थसिद्धि का पाठ ही बदल डाला । क्योंकि यदि वे मनुष्यणी का तात्पर्य द्रव्य-स्त्री मानते जैसा सर्वार्थसिद्धिकार ने माना है, तो षट्खण्डागम को धवला टीका में भी मनुष्यणी का अर्थ द्रव्यस्त्री ही मानना होता और फिर स्त्रो मुक्ति निषेध की दिगम्बर परम्परा "की अवधारणा ही खण्डित हो जाती । इस प्रकार पूज्यपाद जिस भावी
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