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-३९८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है - श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य में स्त्री मुक्ति के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु उनमें कहीं भी उसका तार्किक समर्थन नहीं हुआ है । दिगम्बर परम्परा में स्त्री मुक्ति का तार्किक खण्डन सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलता है । कुन्दकुन्द ने - इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो यही तर्क दिया था कि जिन शासन में वस्त्र- धारी सिद्ध नहीं हो सकता, चाहे वह तीर्थंकर हो क्यों न हो। इससे ऐसा लगता है कि स्त्री मुक्ति के निषेध की आवश्यकता तभी हुई जब अचेलता को हो एक मात्र मोक्षमार्ग मान लिया गया । हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि अचेलता के एकान्त आग्रह ने हो इस अवधारणा को जन्म दिया । क्योंकि शारीरिक एवं सामाजिक मर्यादा के कारण स्त्री नग्न नहीं रह सकती है और नग्न हुए बिना मुक्ति नहीं होतो, इसलिए स्त्री मुक्त नहीं हो सकती। इसी आग्रह के कारण गृहस्थ लिगसिद्ध एवं अन्य लिंगसिद्ध अर्थात् ग्रन्थमुक्ति की आगमिक अवधारणा का निषेध भी आवश्यक हो गया । आगे चलकर जब स्त्री को प्रव्रज्या के अयोग्य बताने के लिए तर्क आवश्यक हुए, तो यह कहा गया कि यद्यपि स्त्री दर्शन से शुद्ध हो तथा - मोक्षमार्ग से युक्त होकर घोर चारित्र का पालन कर रही हो, तो भी उसे - प्रव्रज्या नहीं दी जा सकती। वास्तविकता यह है कि जब प्रव्रज्या को अचेलता से जोड़ दिया गया, तब यह कहना आवश्यक हो गया कि स्त्रो • पंचमहाव्रत रूप दोक्षा की अधिकारी नहीं है । यह भी प्रतिपादन किया कि जो सवस्त्रलिंग है वह श्रावकों का है । अतः क्षुल्लक एवं ऐलक के साथ-साथ आर्यिका की गणना भी क्रमशः श्रावक-श्राविका के वर्ग में की गई । ज्ञातव्य है कि अचेल परम्परा में भी कुन्दकुन्द के पूर्व स्त्रियाँ दीक्षित होती थी और उनको महाव्रत भो प्रदान किये जाते थे । दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द ही ऐसे प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने स्पष्ट रूप से स्त्री को प्रव्रज्या का निषेध किया था और यह तर्क दिया कि स्त्रियाँ स्वभाव से हो शिथिल
१. णवि सिज्झइ वत्यधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥ २३ ॥
णग्गो
विमोक्खमग्गो
- अष्टप्राभृत, सुत्तपाहुड, गाथा २३ प्रकाशक-परम श्रुत प्रभावक मंडल, अगास ।
२. जह दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता । घोरं चरिय चरितं इत्थीसु ण पात्रया भणिया ॥
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- वहीं, गाथा २५
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