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४१६ : जैनधर्म का याषनीय सम्प्रदाय किया था', यदि वे कवलाहार नहीं करते थे तो फिर यह उल्लेख कैसे होता। कवलाहारी के ही उपवास आदि का उल्लेख होता है। दिगम्बर परंपरा द्वारा मान्य मूलतः यापनीय ग्रन्थ 'षट्खण्डागम' में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर सयोगीकेवली तक सभी जीव आहारक होते हैं, मात्र विग्रहगति करने वाले, केवली समद्घात करने वाले, अयोगी केवली और सिद्ध ये चार प्रकार के जीव अनाहारक होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि दिगम्बर ग्रन्थ गोम्मटसार और श्वेताम्बर ग्रन्थ 'जीव-समास' से भी होती है। ज्ञातव्य है कि दोनों परम्परा के ग्रन्थों में यह गाथा समान रूप में उपलब्ध होती है। इसमें कहा गया है कि विग्रह गति को प्राप्त, केवलो समुद्घात करने वाले अयोगो केवलो और सिद्ध ये अनाहारक हैं, शेष सभी जीव आहारक होते हैं। मूलाचार में भी कहा गया है आहारमार्गणा में तेरह गुणस्थान होते हैं। अनाहारमार्गणों में मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरत, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये पाँच की गुणस्थान होती है !
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं द्वारा मान्य मल आगमों में केवली के आहारक होने के उल्लेख हैं। १. पासे अरहा""मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगए""सव्वकुक्ख पहीणे ।
अरहाअरिट्ठनेमी""सद्धिमासिएणं भत्तेण अमाणएणं""कालगए"सम्व दुक्खपहीणे।
-कल्पसूत्र १८८ उसभे अरहा"चोइसमेणं भत्तेणं अपाणएणं "कालगए""सम्वदुक्खपहीणे ।
-कल्पसूत्र २३१. आहारा एइंदियप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति । अणाहारा चदुसु हाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्धादगदाण अजोगिकेवलि सिद्धा चेदि ।
-षट्खण्डागम, १/१/१९६-७७ ३. (अ) विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो अजोगी या। सिद्धा य अणहारा सेसा आहारया जीवा ॥
-गोम्मटसार. आगास, गाथा ६६६ (ब) बिग्गहगइमावण्णा केवलिणी समुहदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥
-भाग २ (पृ० ३२९) ४. अहारस्स य तेरस पंचेव हवंति जाण इयरस्स । मिच्छासासण अविरद सजोगी अजोगी य वोद्धव्वा ॥
-जीवसमास, गाथा ८२
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