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यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४१९ लोमाहार और प्रक्षेपाहार । इस प्रक्षेपाहार को ही कवलाहार कहा जाता है । सभी अपर्याप्तक जीव ओजाहार करते हैं जबकि पर्याप्तक जीव लोमाहार या प्रक्षेपाहार ग्रहण करते हैं । देव, नारक और एकेन्द्रिय जीवों में प्रक्षेपाहार नहीं होता, शेष द्वीन्द्रिय से लेकर सयोगी केवली तक प्रक्षेप आहार करते हैं । केवली को छोड़कर शेष जीव विग्रह गति में दो समय तक अनाहारक रहते हैं, किन्तु केवली समुद्घात करते समय तीन समय तक अनाहारक होते हैं । शैलेषी अवस्था को प्राप्त केवली अर्द्ध अन्तर्मुहूर्त तक अनाहारक होते हैं और सिद्ध सादि अनन्तकाल तक अनाहारक होते हैं ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन श्वेताम्बर मान्य आगमों में नोकर्म आहार, कर्म - आहार और मन आहार का कोई उल्लेख नहीं है । नोकर्म आहार और कर्म आहार की कल्पना वस्तुतः केवली को एक ओर आहारक मानकर भी उसमें आहार-निहार का अभाव सिद्ध करने के लिए की गयी । ज्ञातव्य है कि जहाँ षट्खण्डागम स्पष्टतः सयोगी केवली में आहार का सद्भाव मानता है, वहाँ कुन्दकुन्द स्पष्टतः आहार का अभाव मानते हैं । दोनों एक दूसरे के विरोधी कथन हैं, क्योंकि षट्खण्डागम यापनीय है और कुंदकुंद दिगम्बर । दोनों मान्यताओं में समन्वय करने का प्रयत्न तब किया गया जब कुन्दकुन्द
१. दव्वे सच्चित्तादी खेत्ते नगरस्स जणवओ होइ । भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेवे ॥ सरीरेणेयाहारो तयाय फासेण लोमआहारो । पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायव्वो । ओयाहारा जीवा सव्वे अप्पजत्तगा मुणेयव्वा । पजत्तगा य लोमे पक्खेवे होइ ( होंति) नायव्वा ॥ एगिदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो । सेसाणं पक्खवो संसारत्थाण जीवाणं ॥ एक्कं च दो व समए तिन्नि व समए मुहुत्तमद्धं वा । सादीयमनिहणं पुण कालमणाहारगा जीवा ॥ एक्कं च दो व समए केवलिपरिवज्जिया अणाहारा । मंथ म दोणि लोए य पूरिए तिन्नि समया उ ॥ अंतोमुहुत्तमद्धं सेलेसीए भवे अणाहारा । सादीयमनिहणं पुण सिद्धा सणहारगा होंति ॥
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— सूत्रकृतांगनिर्युक्ति, गाथा १७० - १७६
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