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यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४१७
कुन्दकुन्द द्वारा केवली कवलाहार का निषेध :
दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने 'बोध- पाहुड' में केवलो के आहार-निहार का निषेध किया है, वे लिखते हैं कि केवली वृद्धावस्था, व्याधि और दुःख से रहित होते हैं । उनमें आहार और निहार का भी अभाव होता है । वे श्लेष्म (कफ) स्वेद और दुर्गंध के दोष से भी रहित होते हैं । '
इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ आगमिक परम्परा में केवली के आहार-निहार को स्वीकार करके भी उनका अतिशय बताने की दृष्टि से उनके आहार-निहार को अदृश्य माना, वहीं कुन्दकुन्द ने उनमें आहारनिहार का निषेध हो कर दिया ।
(स) आगमिक परम्परा और कुन्दकुन्द के मध्य समन्वय :
इन दो विरोधी मान्यताओं के कारण एक नयी समस्या उत्पन्न हुई, प्रथम तो यह कि यापनीय ग्रन्थ 'षट्खण्डागम', जिसे कुन्दकुन्द की दिगम्बर परम्परा ने भी आगम रूप में स्वीकार कर लिया था, में आये हुए इस कथन का क्या अर्थ किया जाय कि 'एकेन्द्रिय से लेकर सयोगी केवली तक के सभी जीव आहारक होते हैं । ज्ञातव्य है कि सयोगी haली तक जीव आहारक होते हैं - यह मान्यता षट्खण्डागम से किचित परवर्ती पूज्यपाद की तत्त्वार्थ की सर्वार्थसिद्धि टीका और गोम्मटसार' में भी मिलती है । क्योंकि यदि सयोगीकेवली को सामान्य अर्थ में आहारक मान लिया जाता है तो फिर कुन्दकुन्द की इस मान्यता से विरोध होता है कि केवली आहार-विहार से रहित होते हैं ।" अतः
१. जरावाहिदुक्खर हियं आहारविहारवज्जियं विमलं । सिंहाणखेलसेओ नत्थि दुगुच्छा य दोसो य ॥
- बोषपाहुड, ३७
- षट्खण्डागम, १/१२/१७६
३. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोगी केवल्यान्तानि ।
- सर्वार्थसिद्धि, १/८
२. आहारा एइंदियप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिति ।
४. थावरकायप्पहुदी सजोगिचरमोत्ति होदि आहारी ।
५. आहारनिहारवज्जियं ।
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- गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ६९८
बोधपाहुड, ३७
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