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यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ३९७००
ने नहीं, अपितु अचेलकत्व की समर्थक यापनीय परम्परा ने ही दिया । चूँकि कुन्दकुन्द दक्षिण में हुए थे और यापनीय भी दक्षिण में ही उपस्थित थे; अतः पहली चोट भी उन्हीं पर ही हुई थी और पहला प्रत्युत्तर भी उन्हें ही देना था । सर्वप्रथम लगभग ध्वीं शती में यापनोयों ने इसका प्रत्युत्तर दिया । यापनीय सम्प्रदाय के इन तर्कों का अनुसरण परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने भी किया । श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम आठवीं शती में हरिभद्र ने ललितविस्तरा में स्त्री मुक्ति का समर्थन किया किन्तु उन्होंने भी अपनी ओर से कोई तर्क नहीं देकर इस सम्बन्ध में 'यापनोय-तन्त्र' नामक वर्तमान में अनुपलब्ध किसी यापनीय प्राकृत ग्रन्थ को उद्धृत मात्र किया है | इससे ऐसा लगता है कि कुन्दकुन्द ने लगभग ६वीं शताब्दी में स्त्री मुक्ति के निषेध के सन्दर्भ में जो तर्क दिये थे, उसका खण्डन यापनीयों ने लगभग ७वीं शताब्दी में किया और यापनीयों के तर्कों को ग्रहित करके ही आठवीं शताब्दी से श्वेताम्बर परम्परा में भी स्त्री मुक्ति निषेधक तर्कों का खण्डन किया जाने लगा । ' यापनोय तन्त्र' के पश्चात् स्त्री मुक्ति के समर्थन में सर्वप्रथम यापनीय आचार्य शाक्टायन ने लगभग नवीं शती में 'स्त्री-निर्वाण प्रकरण' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की और उस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखो। इसके बाद दोनों ही परम्पराओं में स्त्री मुक्ति के पक्ष एवं विपक्ष में लिखा जाने लगा । स्त्री मुक्ति के पक्ष में श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र (आठवीं शती) के पश्चात् अभयदेव ( ई० सन् १०००), शान्तिसूरि ( ई० ११२० ), मलयगिरी ( ई० ११५० ), हेमचन्द्र ( ई० ११६० ), वादिदेव ( ई० ११७० ), रत्नप्रभ ( ई० १२५० ), गुणरत्न ( ई० १४०० ), यशोविजय ( ई० १६६० ) और मेघविजय ( ई० १७००) ने अपनी कलम चलाई । दूसरी ओर स्त्री मुक्ति के विपक्ष में दिगम्बर परम्परा में वीरसेन ( लगभग ई० ८००), देवसेन ( ई०९८०), नेमिचन्द ( ई० १०५०), प्रभाचन्द ( ई० ९८० - १०६५ ), जयसेन ( ई० ११५० ), भावसेन ( ई० १२७५ ) आदि ने अपनी लेखनी चलाई ।' यहाँ हमारे लिए उन सब को विस्तृत चर्चा करना संभव नहीं है । इस सन्दर्भ में हम यापनीय आचार्यों के कुछ - प्रमुख तर्कों का उल्लेख करके इस विषय को विराम देंगे। जो पाठक इस सम्बन्ध में विशेष जानने को इच्छुक हो, उन्हें प्रा० पद्मनाभ जैनी के ग्रन्थ Gender & Salvation को देखना चाहिए ।
१. जैती पद्मनाभ - जेन्डर एण्ड साल्वेशन, पेज ४ ।
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