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यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ३९९ परिणाम वालो होतो हैं । इसलिए उनको चित्त को विशुद्धि संभव नहीं है । साथ ही यह भी कहा गया कि स्त्रियां मासिक धर्म से होती है, अतः "स्त्रियों में निःशंक ध्यान संभव नहीं है। यह सत्य है कि शारीरिक तथा सामाजिक कारणों से पूर्ण नग्नता स्त्री के लिये संभव नहीं है और जब सवस्त्र को प्रवज्या एवं मुक्ति का निषेध कर दिया गया तो स्त्री मुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य परिणाम था ही। पुनः आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरिग्रह के साथ-साथ स्त्रो के द्वारा अहिंसा का पूर्णतः पालन भी असम्भव माना, उनका तर्क है कि स्त्रियों के स्तनों के अन्तर में, नाभि एवं कुक्षि (गर्भाशय ) में सूक्ष्मकाय जीव होते हैं, इसलिए उसकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है ? यहाँ यह स्मरणीय है कि कुन्दकुन्द ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं, वे वस्तुतः तो स्त्री की प्रव्रज्या के निषेध के लिए हो हैं। स्त्री मुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य फलित अवश्य है। क्योंकि जब अचेलताही एक मात्र मोझ-मार्ग हो और स्त्री के लिए अचेलता सम्भव नहीं हो तो फिर उसके लिए न तो प्रव्रज्या संभव होगी और नहीं मुक्ति हो।
हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द के इन तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर संभवतः यापनोय परम्परा के 'यापनोयतन्त्र' (यापनोय-आगम) नामक ग्रन्थ में दिया गया है। वर्तमान में यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है किन्तु इसका वह अंश जिसमें स्त्री मुक्ति का समर्थन किया गया है, हरिभद्र के ललितविस्तरा में उद्धत होने से सुरक्षित है। उसमें कहा गया है कि स्त्री अजीव नहीं है, न वह अभव्य है, न सम्यक्दर्शन के अयोग्य है, न अमनुष्य है, न अनार्य क्षेत्र में उत्पन्न है, न असंख्यात आयुष्य वाली है, न वह अतिक्रूरमति है, न अउपशान्त मोह है, न अशुद्धाचारो है, न अशुद्धशरीर है, न वह वजित व्यवसाय वाली है, न अपूर्वकरण को विरोधी है, न नवें गुणस्थान से रहित है, न लब्धि से रहित है, न अकल्याण भाजन है, तो फिर वह उत्तम धर्म अर्थात् मोक्ष को आराधक क्यों नहीं हो सकती ?'
१. चितासोहि ण तेसि ढिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा तेसि इत्योसु णऽसंकया झाणं ।
-सुत्तपाहुड, गाथा २६ २. लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिो सुहमो काओ तासि कह होइ पव्वज्जा ॥
-वही, गाथा २४ ३. ललितविस्तरा, ५० ५७-५९ ।
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