________________
४०८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय जिसकी माथुरीवाचना यापनियों को भी मान्य थी। इसके अतिरिक्त
आगम में स्त्री के १४ गणस्थान कहे गये हैं। संभवतः शाकटायन का यह निर्देश षट्पण्डागम के प्रसंग में हैं। ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम दिगम्बरों को भी मान्य है। इस वचन के प्रति दिगम्बर परम्परा का यह कहना है कि यहाँ स्त्री से तात्पर्य भाव-स्त्री (स्त्रीवेदी जोव ) अर्थात् उस पुरुष से है जिसका स्वभाव स्त्रैण हो। इस सम्बन्ध में शाकटायन का प्रत्युत्तर यह है कि किसी शब्द का दूसरा गौण अर्थ होते हुए भी, जब तक उस सन्दर्भ में उसका प्रथम मुख्य अर्थ उपयुक्त हो तब तक दूसरा गौण अर्थ नहीं लिया जा सकता। प्रत्येक शब्द का अपना एक निश्चित रूढ़ अर्थ होम है और बिना पर्याप्त कारण के उस निश्चित रूढ़ अर्थ का त्याग नहीं किया जा सकता। पूनः जब तक व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ या रूढ़ अर्थ ग्राह्य है, तब तक दूसरा अर्थ लेने की आवश्यता नहीं है। स्त्रो शब्द स्त्रो शरीरधारी अर्थात् स्तन, गर्भाशय आदि से युक्त प्राणी के लिए ही प्रयुक्त होता है। यहाँ (षट्खण्डागम के प्रस्तुत प्रसंग में ) स्त्री शब्द का अन्य कोई अर्थ उसी प्रकार निरर्थक है, जैसे कोई अग्निपुत्र नामक व्यक्ति का अर्थ अग्नि से उत्पन्न पुत्र करें। पुनः जब आगमों में यह कहा जाता है कि स्त्री छटे नरक से आगे नहीं जातो, तो वहाँ स्त्री शब्द को उसके मुख्य अर्थ में लें और आगे जब आगम में यह कहा जाये कि स्त्री में १४ गुणस्थान होते हैं, तो वहाँ स्त्री शब्द को उसके गौण अर्थ अर्थात् भाव-स्त्रो के रूप में ले तो यह उचित नहीं है।
शाकटायन यहाँ स्पष्ट रूप से वीरसेन की षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा खण्ड के ९३वें सूत्र की व्याख्या पर कटाक्ष करते हुए प्रतीत होते हैं । षट्खण्डागम में सत्प्ररूपणा की गतिमार्गणा में यह कहा है कि पर्याप्त मनुष्यनी में संयतासंयत, संयत आदि गुणस्थान होते हैं। वीरसेन की यह मनुष्यनी शब्द को भावस्त्री या स्त्रीवेदो पुरुष ऐसी जो व्याख्या की है, वह शाकटायन को स्वीकार्य नहीं है। शाकटायन का स्पष्ट मत है कि आगम (षट्खण्डागम ) में जो मनुष्यनी शब्द प्रयुक्त हुआ है वहाँ उसका मुख्य अर्थ ही ग्राह्य है। ज्ञातव्य है कि यहाँ मनुष्यनी का अर्थ-स्त्रीवेदो पूरुष (स्त्रिण-पुरुष ) यह इसलिए भी ग्राह्य नहीं हो सकता है, क्योंकि यह चर्चा गति-मार्गणा के सन्दर्भ में हैं, वेदमार्गणा के सम्बन्ध में नहीं है। वेद-मार्गणा की चर्चा तो आगे को हो गई है। अतः प्रस्तुत सन्दर्भ में 'मनुष्यनो' का अर्थ स्त्रीवेदी मनुष्य भावस्त्री नहीं किया जा सकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org