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४१२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय प्राप्त करेगा । कि यापनीय भी आगमिक परम्परा के अनुयायी थे । यापनीय शाकटायन ने इस संबंध में आगम-प्रमाण का उल्लेख भी किया है अतः वे स्त्री-मुक्ति के साथ-साथ अन्य तैथिक की मुक्ति के समर्थक थे। किन्तु जब अचेलता को ही एक मात्र मोक्ष-मार्ग स्वीकार करके मूर्छादि भाव "परिग्रह के साथ-साथ वस्त्र-पात्रादि द्रव्य-परिग्रह का भी पूर्ण त्याग आवश्धक मान लिया गया तो यह स्वाभाविक ही था कि स्त्री-मुक्ति के निषेध के साथ ही साथ अन्यतैथिकों और गृहस्थों को मुक्ति का भो निषेध कर दिया जाय।
दिगम्बर परम्परा चकि अचेलता को हो एकमात्र मोक्षमार्ग माना गया था, इसलिए उसने यह माना कि अन्य-तैर्थिक या गृहस्थ वेश में कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। इसके विपरोत श्वेताम्बर और यापनोय दोनों ही स्पष्ट रूप से यह मानते रहे कि यदि व्यक्ति को रागात्मकता या ममत्व वृत्ति समाप्त हो गयो है तो बाह्य रूप से वह चाहे गृहस्थ वेश धारण किये हुए हो या अन्यतैर्थिक श्रमण या तापस आदि का वेश धारण किये हुए हो, उसकी मुक्ति में कोई बाधा नहीं है । तत्त्वार्थभाष्य' में तत्त्वार्थसूत्र के दशवें अध्याय के सातवेंसूत्र का भाष्य करते हए उमास्वाति ने वेश की अपेक्षा द्रव्यलिंग के तोन भेद किये-- १. स्वलिग २. गहलिंग और ३. अन्यलिंग और यह बताया कि इन तीनों लिंगों से मुक्ति हो भी सकती है और नहों भो हा सकती है। इस प्रकार उमास्वाति ने अन्यतैथिकों एवं गहस्थों की मक्ति को विकल्प से स्वीकार करते हैं, किन्तु इसो सूत्र की व्याख्या में पूज्यपाद 'सर्वार्थसिद्धि' में द्रव्यलिंग की दृष्टि से निर्ग्रन्थ लिंग से ही सिद्धि मानते हैं यद्यपि उन्होंने यह माना है कि भूतपूर्व नय को अपेक्षा से सग्रन्थलिंग से भो सिद्धि होती है । किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के प्रस्तुत सूत्र (१०/७ ) में सिद्ध जीवों का १. लिंगे पुनरन्यो विकल्प उच्यते द्रव्यलिंगभावलिंगअलिंगमिति । प्रत्युत्पन्ने
भावप्रज्ञापनीयस्यालिंग सिध्यति । पूर्वभाव प्रज्ञापनीयस्य भावलिंग प्रतिस्वलिंगे सिध्यति । द्रव्यलिंग त्रिविधं-स्वलिंगमन्यलिंग गृहिलिंगमिति। तत् प्रतिभाज्यम् । सर्वस्तु भावलिंगप्राप्त सिध्यति ॥
-तत्त्वार्थभाष्य, १०/७ का भाष्य २. लिंगेन केन सिद्धिः ? अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदभ्यः सिद्धिर्भावता न द्रव्यतः
पुल्लिगेनैव अथवा निर्ग्रन्थ लिंगेन । सग्रंथलिंगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्षया। -पूण्यपादविरचित सर्वार्थसिद्धि, संपा० फूल चन्द सिद्धान्तशास्त्री
पृष्ठ ४७२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
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