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यापनीय संघ को विशिष्ट मान्यताएं : ४०१
बाली नहीं होती हैं। पूर्वकर्मों के कारण कुछ स्त्रियों और वृद्धाओं की कुक्षी,स्तनप्रदेश आदि अशुचि से रहित भी होते हैं। यह तर्क कुन्दकुन्द की अवधारणा का स्पष्ट प्रत्युत्तर है। पुनः शुद्ध शरीर वालो होकर भी यदि स्त्री परलोक हितकारी प्रवृत्ति से रहित हो तो मोक्ष की अधिकारी नहीं होसकती, परन्तु ऐसा भी नहीं देखा जाता। कुछ स्त्रियाँ परलोक सधारने के लिए प्रयत्नशील भी देखी जाती हैं। यदि यह कहा जाय कि परलोक हितार्थ प्रवृत्ति करने वालो स्त्री भो यदि अपूर्वकरण आदि से रहित हो, तो मुक्ति के योग्य नहीं है। किन्तु शास्त्र में स्त्री भाव के साथ अपूर्वकरण का भी कोई विरोध नहीं दिखलाया गया है, इसके विपरीत शास्त्र तो स्त्री में भी अपूर्वकरण का सद्भाव प्रतिपादित करता है । पुनः यदि यह कहा जाय कि अपूर्वकरण से युक्त होकर भी यदि कोई नवम गुणस्थान को प्राप्त करने में अयोग्य हो तो वह मुक्ति की अधिकारी नहीं हो सकती। किन्तु आगम में तो स्त्री में नवम गुणस्थान का भी सद्भाव प्रतिपादित किया गया है। यदि यह तर्क दिया जाय कि नवमगुणस्थान को प्राप्त करने में समर्थ होने पर भो, यदि स्त्रो में लब्धि प्राप्त करने की योग्यता नहीं हो तो, वह केवल्य आदि को प्राप्त नहीं कर पाती है। इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि वर्तमान में भी स्त्रियों में आमर्षलब्धि अर्थात् शरीर के मलों का औषधि रूप परिवर्तित हो जाना आदि स्पष्ट रूप से देखी जाती है। अतः वह लब्धि से रहित नहीं है। यदि यह कहा जाय कि स्त्रो लब्धि योग्य होने पर कल्याण-भाजन न हो तो वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकेगी। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि स्त्रियाँ कल्याणभाजन होती हैं, क्योंकि वे तीर्थकरों को जन्म देती हैं। अतः स्त्री उत्तम धर्म अर्थात् मोक्ष की अधिकारी हो सकती है।
हरिभद्र ने इसके अतिरिक्त सिद्धों के पन्द्रह भेदों की चर्चा करते हुए 'सिद्धप्राभृत' का भी एक सन्दर्भ प्रस्तुत किया है। सिद्धप्राभृत में कहा गया है कि सबसे कम स्त्री-तोयंकर ( तीर्थंकरो ) सिद्ध होते हैं। उनको अपेक्षा स्त्री-तीर्थकर के तीर्थ में नोतीथंकर सिद्ध असंख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनको अपेक्षा स्त्री-तोयंकर के तीर्थ में नोतोथंकरोसिद्ध ( स्त्री शरीर से सिद्ध ) असंख्यात गुणा अधिक होती हैं । सिद्धप्रामृत (सिद्धपाहुड) एक पर्याप्त प्राचीन ग्रन्थ है, जिसमें सिद्धों के विभिन्न अनुयोगद्वारों की १. सव्वत्थोआ तित्थयरिसिद्धा, तित्थयरितित्थे णोतित्थयरसिद्धा असंखेज्जगुण तित्थयरितित्थे णोतित्थयरिसिद्धा असंखेज्जगुणो।
पृ० ५६, ललितविस्तरा
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