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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३०३ के न केवल क्षेत्रकृत और कालकृत भेदों का उल्लेख किया है अपितु इनकी अतिविस्तार में चर्चा भी की है। वस्तुतः पूज्यपाद ने परमार्थकाल और व्यवहारकाल, भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल की चर्चा तो की है, अपितु परमार्थ काल और व्यवहार काल में उनकी मुख्यता और गौणता को भी विस्तार से चर्चा की है। यदि भेद चर्चा को ही विकास का आधार माना जाये तो पंचम अध्याय के निष्क्रियाणिच' (श्वे० ६/ दिग० ७) में उत्पाद के दो भेदों की चर्चा हुई है, जबकि भाष्य में ऐसी कोई चर्चा नहीं है । इससे यह स्पष्ट लगता है कि सर्वार्थसिद्धि भाष्य की अपेक्षा विचार और भाषा दोनों ही दृष्टि से अधिक विकसित है। परत्व और अपरत्व के भेदों की चर्चा में क्षेत्र और काल के अतिरिक्त प्रशंसा को उसका एक भेद मानना अथवा नहीं मानना यह पूज्यपाद की अपनो व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न भी हो सकता है। सम्भवतः पूज्यपाद ने भाष्य के सम्मख होते हए भी उसे स्वीकार नहीं किया हो, किन्तु आगे अकलंक ने अपने वार्तिक में उसका अनुसरण किया हो । यदि विकास को समझना है तो हमें वैचारिक विकास को दष्टि से विविध तथ्यों का संकलन करना होगा। नीचे तुलनात्मक दृष्टि से हम कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे है जिस पर 'विचार करके पाठकों को यह निर्णय करने में सुविधा होगी कि वैचारिक विकास की दृष्टि से कौन पूर्व है आर कोन पश्चात् । सर्वार्थसिद्धि
___तत्त्वार्थभाष्य १. सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थान १. जबकि तत्त्वार्थभाष्य में गुण
स्थान सिद्धान्त का पूर्णतः अभाव और मार्गणा स्थान का अत्यधिक है, उसमें प्रथम अध्याय के ८वें सूत्र विकसित और विस्तृत विवरण
की व्याख्या केवल दो पृष्ठों में समाप्त
हो गई है। मार्गणा के रूप में मात्र उपलब्ध है । सर्वार्थसिद्धि के प्रथम गति इन्द्रिय काय, योग, कषाय अध्ययन के ८वें सूत्र को व्याख्या में आदि का नामोल्लेख है, उनके
सम्बन्ध में कोई विस्तृत चर्चा नहीं लगभग सत्तर पृष्ठों में गुणस्थान है। सत्तर पृष्ठों में चर्चा करनेवाला और मार्गणास्थान को चर्चा की
ग्रन्थ विकसित है या मात्र दो पृष्ठों में
चर्चा करने वाला विकसित है पाठक गई है।
स्वयं यह विचार कर लें।
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