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३२६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय जैनधर्म की श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा में अन्तर माना जाता है। इसी आधार पर तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ता की परम्परा का निर्धारण करने का प्रयत्न भी किया जाता है । श्वेताम्बर परम्परा के आगम णायधम्मकहाओ, आवश्यकनियुक्ति तथा प्रवचनसारोद्धार में तीर्थकर नाम कर्म बंध के बीस कारणों का उल्लेख मिलता है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर टोकाओं में तीर्थकर नाम कर्म बन्ध के सोलह कारणों का उल्लेख मिलता है ।
तत्त्वार्थसूत्र मूल में यद्यपि स्पष्ट रूप से सोलह का संख्या का उल्लेख नहीं है, किन्तु फिर भी गणना करने पर उनकी संख्या सोलह ही है ।
१. (अ) अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए तस्वसीसु ।
वच्छलया य एसि अभिक्खनाणोवआगे अ॥१॥ दंसणविणए आवस्सए अ सीलव्वए निरइचारो। खणलवतवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ २ ॥ अपुव्वणाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पहावणया । एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ ३ ॥
-ज्ञाताधर्मकथा, अध्याय ८ (ब) आवश्यक नियुक्ति १७९-१८१, तथा ४५१-५३ (स) प्रवचनसारोद्धार, १०/३१२ ( देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्वारे
ग्रन्थाङ्क५८) २. (अ) “दर्शनविशुद्धि विनयसम्पन्नता शीलबतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग
संवेगो शक्तितस्त्याग-तपसी संघोसाधुसमाधिवैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुत-प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य
तत्त्वार्थसूत्र ६/२४ देखें-इसी सूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवातिक आदि
टीकायें। (ब) “दसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलवदेसु णिरदिचारदाए
आवासएसु अपरिहीणदाए खणलवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधागमे तथा तवे साहूणं पासुअपरिच्चागदाए साहूणं समाहिसंघारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए, पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणाए अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्म बंचंति ।"
-षट्खण्डागम, बन्धस्वामित्व, ७/४१
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