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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३५३ 'दुःषमाकालश्रमणसंघस्तोत्र' (विक्रम की ११वीं सदी) में हरिभद्र और जिनभद्रगणि के बाद उमास्वाति को लिखा है जबकि स्वयं हरिभद्र तत्त्वार्थभाष्य के एक टीकाकार हैं और जिनभद्रगणि ने अपना विशेषावश्यक भाष्य वि० सं० ६६० में समाप्त किया है ।
धर्मसागर उपाध्यायकृत तपागच्छपट्टावली (वि० सं० १६४६ ) में . जिनभद्र, विबुधप्रभ, जयानन्द और रविप्रभ के बाद उमास्वाति को युगप्रधान बतलाया है और उनका समय वीर नि० सं०७२०, फिर उनके बाद यशोदेव का नाम है । इसके विरुद्ध देवविमल की महावोर-पट्टपरम्परा (वि० सं० १६५६ ) में रविप्रभ और यशोदेव के बीच उमास्वाति का नाम ही नहीं है और न आगे कहीं है ।
विनयविजयगणि ने अपने लोकप्रकाश (वि० सं० १७०८ ) में उमास्वाति को ग्यारहवाँ युगप्रधान बतलाया है, जो जिनभद्र के बाद और पुष्यमित्र के पहले हुए।
रविवर्द्धनगणि ( वि० सं० १७३१ ) ने पट्टावलीसारोद्धार में उमास्वाति को युगप्रधान कहकर उनका समय वीर नि० सं० ११९० लिखा हैं। उनके बाद वे जिनभद्र को बतलाते हैं, जबकि धर्मघोषसूरि उमास्वाति को जिनभद्र के बाद रखते हैं। ___ धर्मसागर ने तो अपनी तपागच्छ पट्टावली ( सटीक ) में दो उमास्वाति खड़े कर दिये हैं, एक तो विक्रम संवत् ७२० में रविप्रभ के बाद होने वाले, जिनका उल्लेख ऊपर हो चुका है और दूसरे आर्य महागिरि के बहुल और बलिस्सह नामक दो शिष्यों में से दूसरे बलिस्सह के शिष्य, जिनका समय वीर नि० ३७६ से कुछ पहले पड़ता है और उन्हें ही तत्त्वार्थादि का कर्ता अनुमान कर लिया है।
गरज यह कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लेखक भी उमास्वाति की परम्परा और समयादि के सम्बन्ध में अँधेरे में हैं। उन्होंने भी बहुत पीछे उन्हें अपनी परम्परा में कहीं न कहीं बिठाने का प्रयत्न किया है' !"
अब हम सम्माननीय प्रेमी जी के इन तर्कों की समोक्षा करेंगे और देखेंगे कि उनके तर्कों में कितना बल है। उनका यह कथन सत्य है कि जहाँ प्राचीन श्वेताम्बर और दिगम्बर पट्टावलियाँ उमास्वाति के सन्दर्भ में मौन है वहाँ परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर पट्टावलियों में उनका १. जैनसाहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम जी प्रेमी पृ० ५३१-५३२
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