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३९४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय व्याख्याओं में आवश्यक चूणि ( ७वीं शती ) में भी मरुदेवी की मुक्ति का उल्लेख पाया जाता है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य.. यापनीय ग्रन्थ कषायप्राभृत एवं षट्खण्डागम भी स्त्री मुक्ति के समर्थक हैं।
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ई० सन् की पांचवीं-छठी शताब्दी तक जैन परम्परा में कहीं भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं था । स्त्रीमुक्ति एवं सग्रन्थ ( सवस्त्र ) की मुक्ति का सर्वप्रथम निषेध आचार्य कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड़ में किया है। यद्यपि यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम को सुत्तपाहुड का समकालीन ग्रन्थ माना जा सकता है, फिर भी उसमें स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं है, अपितु मूलग्रन्थ में तो पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में चौदह गुण-- स्थानों को सम्भावना मानकर प्रकारान्तर से उसको तद्भव मुक्ति स्वीकार की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्त्रीमुक्ति के निर्देश हमें ई० पूर्व के आगमिक ग्रन्थों से लेकर ई० की सातवीं शती तक की आगामिक व्याख्याओं में मिलते हैं। फिर भी उनमें कहीं भी स्त्रीमक्ति की ताकिक सिद्धि का कोई प्रयत्न नहीं देखा जाता है। इसकी तार्किक सिद्धि की आवश्यकता तो तब होतो, जब किसी ने उसका निषेध किया होता। स्त्रीमुक्ति का निषेध कुन्दकुन्द के पूर्व किसी भी आचार्य ने किया हो, ऐसा एक भी प्रमाण नहीं है । यद्यपि यह विवाद का विषय ही रहा है कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की रचना है या नहीं, फिर भी एक बार हम यह मान लें कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की हो रचना है तो भी उस ग्रन्थ एवं उसके कर्ता का काल छठी शताब्दो के पूर्व का तो नहीं हो सकता है, क्योंकि कुन्दकुन्द की रचनाओं में गुणस्थान और सप्तभंगो को अवधारणाएं स्पष्ट रूप से उल्लिखित है जो लगभग पाँचवो-छठी शती में अस्तित्व में आई हैं। प्रो० एम० ए० ढाको ने कुन्दकुन्द के समय सम्बन्धी पूर्व मान्यताओं को समीक्षा करते हुए इस पर विस्तार से विचार किया है. और वे उन्हें छठो शताब्दो के पूर्व का किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करते हैं।
तत्त्वार्थभाष्य ( लगभग चतुर्थ शतो ) में सिद्धों के अनुयोगद्वार को
१. आवश्यकचूणि, भाग १, पृष्ठ १८१ एवं भाग २, पृष्ठ २१२ । २. सुत्तपाहुड, गाथा २३-२६ । ३. देखें-आसपेक्ट औफ जनालोजो, वाल्यम ३, पेज १८७ पर प्रो० एम० ए०.
ढाकी का लेख-The Date of Kund Kudacharya.
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