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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३८५ १०. उमास्वाति को यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम आदि का अनुसरणकर्ता मानकर यापनीय कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि यापनीय परम्परा पांचवीं शताब्दी के पश्चात् ही अस्तित्व में आई है और षट्खण्डागम आदि में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत विवरण होने से वे तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती है। वस्तुतः उमास्वाति श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही धाराओं की पूर्वज उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ धारा को उच्चनागर शाखा में हुए हैं। यह सम्भव है कि वे सचेल पक्ष के समर्थक रहे हों, किन्तु इस आधार पर उन्हें श्वेताम्बर नहीं कहा जा सकता। अपवाद रूप में सचेलता तो यापनीयों को भी मान्य थी। हम देखते हैं कि मथुरा के शिल्प में मुनियों की मतियों के जो अंकन हैं, उसमें वे सचेल और सपात्र होकर भो नग्न हैं। इन मूतियों के अंकन का काल और उमास्वाति का काल लगभग एक ही है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि चाहे उमास्वाति अपवाद मार्ग में मुनि के द्वारा वस्त्र और पात्र ग्रहण करने के विरोधी भले न हो किन्तु वे उस अर्थ में सचेलता के समर्थक भी नहीं हैं, जिस अर्थ में आज श्वेताम्बर उसका अर्थ ग्रहण करते हैं ।
११. वे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वज हैं । यद्यपि इतना निश्चित है कि वे दक्षिण भारत की प्राचीन निग्रंथ धारा से सीधे सम्बद्ध नहीं थे, क्योंकि वे उत्तर भारत में हुए हैं। उनका जन्मस्थान न्यग्रोधिका और उनकी उच्चनागरशाखा का उत्पत्ति स्थल उच्चकल्पनगर आज भो उत्तर-पूर्व मध्यप्रदेश में सतना के निकट नागोद और ऊँचेहरा के नाम से अवस्थित हैं। उनका विहार-क्षेत्र भी मुख्य रूप से पटना से मथुरा तक रहा है । इस सबसे यही फलित होता है कि वे दक्षिण भारत को अचेल धारा से सम्बद्ध न होकर उत्तर भारत को उस धारा से सम्बद्ध रहे हैं जिससे आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं का विकास हुआ है। दक्षिण भारत की निग्रन्थ परम्परा, जो आगे चलकर दिगम्बर नाम से अभिहित हुई, उनसे यापनीयों के माध्यम से ही परिचित हुई है।
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