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३४८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
“स्वदारसंतोषव्रत' कहा है एवं उस सम्बन्ध में सारे उपदेश एवं नियम पुरुष को लक्ष्य करके हो कहे, तो इससे क्या यह मान लिया जाये कि उन्हें स्त्री का व्रतधारी श्राविका होना भी स्वीकार्य नहीं है ।
पुनः क्या दंशमशक परीषह दिगम्बर मुनि को ही होता था और मात्र लोकलज्जा के लिए अल्पवस्त्र रखने वाले प्राचीनकाल के श्वेताम्बर मुनियों को नहीं होता था ? क्या स्वयं पण्डित जी को या किसी गृहस्थ को यह कष्ट नहीं होता है, कम या अधिक का प्रश्न हो सकता है किन्तु यह परोषह तो सभी को होता है। फिर उत्तराध्ययन आदि अनेक श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इस परोषह का उल्लेख है। यदि दंशमशक परीषह का उल्लेख होना हो ग्रन्थ के दिगम्बर परम्परा का होने का प्रमाण है तो फिर डॉ० कोठिया जी को ऐसे सभी ग्रन्थों को दिगम्बर परम्परा का मान लेना चाहिए। यदि दिगम्बर मुनि को आहार करते हुए क्षुधा परोषह हो सकता है, तो श्वेताम्बर मनि को वस्त्र रखते हए अचेल परीषह क्यों नहीं हो सकता है ? परीषह वह है जो कभी समय आने पर होता है । तप का “नियम लेकर क्षुधा-वेदनीय को सहना तप है, जबकि भोजन की इच्छा होते हुए भी आहार प्राप्त न होने से क्षुधा सहन करना क्षुधा परीषह है । पुनः आज भी बिहार जैसे प्रान्त में क्या सवस्त्र गृहस्थ इस परीषह (कष्ट) से पीड़ित नहीं होते हैं। कपड़े होने पर भी श्वेताम्बर साधु का सम्पूर्ण शरीर तो वस्त्र से ढका हुआ नहीं होता है अतः दंशमशक परिषह तो सचेल और अचेल दोनों को ही होता है। क्या तत्त्वार्थभाष्य का श्वे० परम्परा से विरोध है ? इसी प्रकार पं० कैलाशचन्द्र जी', पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार, पं० फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री, पं० दरबारीलालजी कोठिया आदि विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य का श्वेताम्बर मान्य आगमों में पांच-छ:
१. जैनसाहित्य का इतिहास भाग २, ६० कैलाशचंद जी, वर्णी संस्थान वाराणसी
पृ० २६४-२६८ २. जैनसाहित्य और इतिहास पर विशदप्रकाश, पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार
पृ० १३२-१४७ ३. सर्वार्थसिद्धि-सम्पादक पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री, प्रस्तावना, पृ०
६५-६८ ४. (अ) जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, डॉ० दरबारीलाल कोठिया ..
(ब) जैन तत्त्व ज्ञानमीमांसा-डॉ० दरबारीलाल कोठिया पृ० १६९-२७५ ..
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