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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३०१ सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट रूप से एक-दो नहीं शताधिक स्थलों पर अर्थ विकास देखा जाता है। इस सत्य को देखते हुए भी यह कहना कि उमास्वाति ने सर्वार्थसिद्धि और उसके मान्य पाठ को लेकर अपना भाष्य बनाया, हमारी बौद्धिक ईमानदारी के प्रति प्रश्नचिह्न हो खड़ा करेगा। जब सर्वार्थसिद्धि में भाष्य के अंश को मूल पाठ मानकर उस पर व्याख्या लिखो जा रही है तो यह कैसे कहा जा सकता है कि भाष्य में अर्थ विकास हआ है ?
पुनःपं० फूलचन्दजो ने दसवें हो अध्याय के 'बन्ध"मोक्षः' (सर्वार्थसिद्धि ९।२) नामक सत्र को लेकर भी अर्थ विकास की बात कही है। सर्वप्रथम तो हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि भाष्यमान्य मूलपाठ में यह सत्र दो भागों में विभाजित है जबकि सर्वार्थसिद्धि के मान्य पाठ में ये दोनों सूत्र मिलाकर एक कर दिये गये हैं। अतः यदि मात्र सूत्र को दृष्टि से देखे तो दोनों में किंचित् अन्तर नहीं है, एक सूत्र को दो सूत्र अथवा दो सूत्र को एक सूत्र कर देने को कभी भी अर्थ विकास नहीं कहा जा सकता। जहाँ कुछ प्रसंगों में भाष्यमान्य पाठ में सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ का एक सूत्र दो सूत्रों में मिलता है वहीं अधिकांश प्रसंगों में सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में भी भाष्यमान्य पाठ के एक सूत्र को दो सूत्रों में दिखाया गया है। इस प्रकार सत्र विभाजन या सूत्र संकलन के आधार पर पूर्वापरत्व का निश्चय नहीं किया जा सकता, जबतक कि अन्य कोई ठोस प्रमाण न हो । यदि हम यह मानें कि इन दो सूत्रों को एक मानकर मोक्ष को अधिक सुसंगत व्यवस्था सम्भव थी, तो ऐसी स्थिति में यह मानना होगा कि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ अधिक सुसंगत या विकसित है । पुनः पं० जी मानते हैं कि 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम्' सूत्र का सम्बन्ध उमास्वाति ने पूर्वसूत्र और उत्तरसूत्र दोनों से माना, इसमें अर्थ विकास कैसे हो गया, यह हम समझ नहीं पाते। कोई भी मध्यवर्ती सूत्र अपने पूर्वसूत्र से और अपने उत्तर सूत्र से सम्बन्धित होता ही है । इसमें अर्थ विकास की कल्पना कैसे आ गयी ?
इस सूत्र का भाष्य और सर्वार्थसिद्धि टीका दोनों को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वार्थसिद्धि अधिक विकसित है। सर्वार्थसिद्धि के इस सत्र की व्याख्या में गुणस्थान और कर्म प्रकृतियों के क्षयोपशम की विस्तृत चर्चा है जबकि भाष्य में ऐसा कुछ भी नहीं है। फिर पं० जी किस आधार पर यह कहते हैं कि भाष्य सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा विकसित है। यदि भाष्य विकसित होता तो उसमें यहाँ गृणस्थान की चर्चा होनी थी, जैसी सर्वार्थसिद्धि आदि टोकाओं में है। सम्भवतः हम अपने साम्प्रदायिक
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