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यापनीय साहित्य : २१९ पउमचरियं के सम्प्रदाय का निर्धारण करने हेतु यहाँ दो समस्याएँ. विचारणीय हैं-प्रथम तो यह कि यदि पउमचरियं का रचनाकाल वीर नि० सं० ५३० है, जिसे अनेक आधारों पर अयथार्थ भी नहीं कहा जा सकता है, तो वे उत्तरभारत के सम्प्रदाय विभाजन के पूर्व के. आचार्य सिद्ध होंगे। यदि हम महावीर का निर्वाण ई० पू० ४६७ मानते हैं तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० सन् ६४ और वि० सं० १२२ आता है। दूसरे शब्दो में पउमचरियं विक्रम को द्वितीय शताब्दो के पूर्वार्ध की रचना है। किन्तु विचारणीय यह है कि क्या वीर नि० सं० ५३० में नागिलकुल अस्तित्व में आ चुका था ? यदि हम कल्पसूत्र पट्टावलि की दृष्टि से विचार करें तो आर्य वज्र के शिष्य आर्य वज्रसेन और उनके शिष्य आर्य नाग महावीर की पाट परपरा में क्रमशः १३वें, १४वें एवं १५वें स्थान पर आते हैं। यदि आचार्यों का सामान्य काल ३० वर्ष मानें तो आर्यवज्रसेन और आर्य नाग का काल वीर नि० के ४२० वर्ष पश्चात् आता है, इस दृष्टि से वीर नि० के ५३०वें वर्ष में नाइल कुल का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । यद्यपि पट्टावलियों में वज्र स्वामी के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु निह्नवों के सम्बन्ध में जो कथायें हैं, उसमें आर्य रक्षित को आर्य भद्र और वज्र स्वामी का समकालीन बताया गया है और इस दृष्टि से वज्रस्वामी का समय वीर नि० ५८३ मान लिया गया है, किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । इस संबंध में विशेष उहापोह करके कल्याण विजय जी ने आर्य वजूसेन की दीक्षा वीर निक सं० ४८६ में निश्चित को है। यदि इसे भी हम सही मान लें तो वीर नि० सं० ५३० में नाईल कूल का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं आती है । पुनः यदि कोई आचार्य दीर्धजोवी हो तो अपनी शिष्य परंपरा में सामान्यतया वह चार-पाँच पोढ़ियाँ तो देख हो लेता है। वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग, जिनके नाम पर नागेन्द्र कुल ही स्थापना हुई, अपने दादा गुरु आर्य वज्र के जीवनकाल में जीवित हो सकते हैं। पुनः आर्य वज्र का स्वर्गवास वी० नि० सं० ५८४ में हुआ ऐसा अन्य स्रोतों से प्रमाणित नहीं होता है । मेरो दृष्टि में तो यह भ्रान्त अवधारणा है। यह भ्रान्ति इसलिये प्रचचित हो गई कि नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य वज़ के पश्चात् सीधे आर्य रक्षित का उल्लेख हुआ। इसी आधार पर उन्हें आर्य वज्र का सीधा शिष्य मानकर वज्रसेन को उनका गुरु भ्राता मान लिया गया और आर्यरक्षित के काल के आधार पर उनके काल का १. पट्ठावली परागसंग्रह (कल्याणविजयजी), पृ० २७ एवं १३८-१३९.
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