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सिद्धसेन दिवाकर और उनके सम्मतिसूत्र की परम्परा : २२५ क्या सिद्धसेन दिगम्बर है ?
इस चर्चा के प्रसंग में हमारा आधार मुख्य रूप से सन्मतिसूत्र और द्वात्रिशिकाएँ ही है । न्यायावतार सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की कृति है या नहीं, यह विवादास्पद प्रश्न है । इस सन्दर्भ में श्वे० विद्वान् भी मतैक्य नहीं रखते हैं। पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी एवं पं० दलसुखमालवणिया ने न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति माना है, किन्तु एम० ए० ढाकी आदि कुछ श्वेताम्बर विद्वान् उनसे मतभेद रखते हुए उसे सिद्धषि की कृति मानते हैं'। किंतु कुछ तार्किक आधारों पर मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि न्यायावतार भी सिद्धसेन की कृति है। प्रथम तो यह कि न्यायावतार भी एक द्वित्रिशिका है और मुझे ज्ञात नहीं है कि सिद्धसेन के अतिरिक्त किसी अन्य श्वेतांबर या दिगंबर प्राचीन आचार्य ने द्वित्रिशिका शैली को अपनाया हो, उदाहरण के रूप में हरिभद्र ने अष्टक, षोडशक एवं विशिकायें तो लिखीं किन्तु द्वात्रिंशिका नहीं लिखी। दूसरे न्यायावतार में आगम युग के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों की ही चर्चा हुई है दर्शनयुग में विकसित जैन परम्परा में मान्य स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क की प्रमाण के रूप में मूल ग्रन्थ में कोई चर्चा नहीं है जबकि परवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्य एवं न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि स्वयं भी इन प्रमाणों की चर्चा करते हैं । यदि सिद्धर्षि स्वयं ही इसके कर्ता होते तो कम से कम एक कारिका बनाकर इन तीनों प्रमाणों का उल्लेख तो मूलग्रन्थ में अवश्य करते । पुनः सिद्धर्षि की टीका में एक भी ऐसा लक्षण नहीं मिलता है, जिससे वह स्वोपज्ञ सिद्ध होती है ।
प्रत्यक्ष की परिभाषा में प्रयुक्त अभ्रान्त पद तथा सन्मतभद्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार के जिस श्लोक को लेकर यह शंका की जाती है कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है- अन्यथा वे धर्मकीर्ति और समन्तभद्र के परवर्ती सिद्ध होंगे। उसमें जहाँ तक अभ्रान्त पद का प्रश्न है - तुची के अनुसार यह धर्मकीर्ति के पूर्व भी बौद्ध न्याय में प्रचलित था । यह हो सकता है धर्मकीर्ति के पूर्व भी बौद्ध न्याय का वर्तमान में अनुपलब्ध कोई ग्रन्थ रहा हो जिसमें अभ्रान्त पद का प्रयोग हुआ हो । पुनः समन्तभद्र की कृति के रूप में मान्य रत्नकण्डक श्रावकाचार में प्राप्त जिस समान कारिका को लेकर विवाद किया जाता हैउस सम्बन्ध में प्रथम तो यह निश्चित नहीं है कि रत्नकरण्डक
१. प्रो० एम० ए० ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर
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