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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २७५
अध्ययन की स्थिति प्रशमरति के समान है, प्रशमरति भी स्पष्ट रूप से यह तो नहीं कहती है, कि क्षितिआदि पाँच स्थावर है, किन्तु वह इन पाँचों का उल्लेख करने के पश्चात् त्रस कहकर जीव के छह भेद बताती है। जबकि उत्तराध्ययन के ३६वें अध्ययन की स्थिति तत्त्वार्थ और उसके भाष्य के समान है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थ भाष्य और प्रशमरति दोनों में ही आगमिक मान्यताओं का ही अनुसरण किया है। ऐसा लगता है कि उनके काल तक दोनों ही मान्यताएं प्रचलित रही हैं और किन्तु पाँच एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर मानने की अवधारणा धीरे-धोरे स्थिर हो रही थी, यही कारण है कि उन्होंने प्रशमरति में पंचस्थावरों की अवधारणा का उत्तराध्ययन के २६वें अध्ययन एवं दशवैकालिक के अनुरूप ही विवेचन किया। जब एक ही आगम में दोनों प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध हैं, तो यह आश्चर्यजनक नहीं है कि एक ही कर्ता की दो भिन्न कृतियों में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण उपलब्ध हो जायें। यद्यपि दिगम्बर परम्परा के सर्वार्थ-सिद्धिमान्य पाठ' में और परवर्ती सभी दिगम्बर तत्त्वार्थ की टीकाओं में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति इन पाँच को स्थावर माना गया है। किन्तु स्वयं दिगम्बर परम्परा में ही कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण इससे भिन्न है। कुन्दकुन्द अपने ग्रन्थ पंचास्तिकाय में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, अप, वायु, अग्नि और वनस्पति ये पाँच एकेन्द्रिय जीव हैं। इन एकेन्द्रिय जीवों में तीन स्थावर शरीर से युक्त हैं और शेष अनिल और अनल त्रस शरीर से युक्त हैं। यहाँ कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण भी त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण में श्वेताम्बर आगम और श्वेताम्बर मान्य पाठ के समान है। किन्तु उसी पंचास्तिकाय को गाथा संख्या ११३ में उन्होंने प्रशमरति के समान ही पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति का एक साथ विवरण प्रस्तुत किया है। यदि कुन्द१. पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ।
-तत्त्वार्थ (सर्वार्थसिद्धि) २०१३ २. पुढवी य उदगमगणी वाउवणत्फदि जीव संसिदा काया।
दंति खलु मोह बहुलं फासं बहुगा वि ते तेसि ।। तित्थावरतणुजोगा अणिलाणल काइया ये। तेसु तसा । मणपरिणाम विरहिदा जीवा एगेंदिया णेया ॥
-पंचास्तिकाय ११०-१११ ३. एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया । _(मन) मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ।। -पंचास्तिकाय ११३
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